क़ैसर निज़ामी
ग़ज़ल 11
अशआर 5
तिरे बग़ैर तेरे इंतिज़ार से थक कर
शब-ए-फ़िराक़ के मारों को नींद आई है
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तमाम उम्र रहे मेरा मुंतज़िर तू भी
तमाम उम्र मिरे इंतिज़ार को तरसे
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तू सरापा नूर है मैं तेरा अक्स-ए-ख़ास हूँ
कह रहे हैं यूँ तिरा सब आईना-ख़ाना मुझे
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अब तो रुस्वाइयाँ यक़ीनी हैं
उन के लब पर मिरा फ़साना है
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ख़िज़ाँ की ज़द में ही अब तक तिरा गुलिस्ताँ था
हमीं ने आ के बहारों को ज़िंदगी बख़्शी
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