रफ़ी रज़ा
ग़ज़ल 12
अशआर 10
अगरचे वक़्त मुनाजात करने वाला था
मिरा मिज़ाज सवालात करने वाला था
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आईने को तोड़ा है तो मालूम हुआ है
गुज़रा हूँ किसी दश्त-ए-ख़तरनाक से आगे
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किस ने रोका है सर-ए-राह-ए-मोहब्बत तुम को
तुम्हें नफ़रत है तो नफ़रत से तुम आओ जाओ
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तू ख़ुद अपनी मिसाल है वो तो है
इसी अपनी मिसाल में मुझे मिल
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धूप छाँव का कोई खेल है बीनाई भी
आँख को ढूँड के लाया हूँ तो मंज़र गुम है
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