रफ़ीआ शबनम आबिदी
ग़ज़ल 15
नज़्म 23
अशआर 6
ख़ुद-कुशी क़त्ल-ए-अना तर्क-ए-तमन्ना बैराग
ज़िंदगी तेरे नज़र आने लगे हल कितने
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किस सलीक़े से ख़यालों को ज़बाँ दे दे कर
मुझ को उस शख़्स ने बातों में लगाए रखा
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मुझे तो याद है अब तक वो क्या ज़माना था
तिरे जवाब का मौसम मिरे सवाल के दिन
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मिरी बातें हमेशा ही तुम्हें यूँही सी लगती हैं तो मत सुनना
मगर कुछ हो ही जाए तो न पछताओ न घबराओ कहा था ना
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सब से बड़ा ये जुर्म था मेरा इसी लिए बदनाम हुई
सारी दुनिया जहाँ गिरी थी उसी मोड़ पर संभली मैं
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