रजब अली बेग सुरूर के शेर
अब है दुआ ये अपनी हर शाम हर सहर को
या वो बदन से लिपटे या जान तन से निकले
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नादान कह रहे हैं जिसे आफ़्ताब-ए-हश्र
ज़र्रा है उस के रू-ए-दरख़्शाँ के सामने
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लाज़िम है सोज़-ए-इश्क़ का शो'ला अयाँ न हो
जल बुझिए इस तरह से कि मुतलक़ धुआँ न हो
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क्या यही थी शर्त कुछ इंसाफ़ की ऐ तुंद-ख़ू
जो भला हो आप से उस से बुराई कीजिए
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दम-ए-तकफ़ीन भी गर यार आवे
तो निकलें हाथ बाहर ये कफ़न से
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न पहुँचा गोश तक इक तेरे हैहात
हज़ारों नाला निकला इस दहन से
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