रशीद अहमद सिद्दीक़ी के हास्य-व्यंग्य
चारपाई
चारपाई और मज़हब हम हिंदोस्तानियों का ओढ़ना बिछौना है। हम इसीपर पैदा होते हैं और यहीं से मदरसा, ऑफ़िस, जेल-ख़ाने, कौंसिल या आख़िरत का रास्ता लेते हैं। चारपाई हमारी घुट्टी में पड़ी हुई है। हम इसपर दवा खाते हैं। दुआ' और भीक भी मांगते हैं। कभी फ़िक्र-ए-सुख़न करते
धोबी
अलीगढ़ में नौकर को आक़ा ही नहीं “आक़ा-ए-नामदार” भी कहते हैं और वो लोग कहते हैं जो आज कल ख़ुद आक़ा कहलाते हैं ब-मा'नी तलबा! इससे आप अंदाज़ा कर सकते हैं कि नौकर का क्या दर्जा है। फिर ऐसे आक़ा का क्या कहना “जो सपेद-पोश” वाक़े हों। सपेद पोश का एक लतीफ़ा भी सुन
अरहर का खेत
देहात में अरहर के खेत को वही अहमियत हासिल है जो हाईड पार्क को लंदन में है। देहात और देहातियों के सारे मंसबी फ़राइज़। फ़ित्री हवाइज और दूसरे हवादिस यहीं पेश आते हैं। हाईड पार्क की ख़ुश फ़े'लियाँ आर्ट या उसकी उ'र्यानियों पर ख़त्म हो जाती हैं, अरहर के खेत की
गवाह
गवाह क़ुर्ब-ए-क़यामत की दलील है। अदालत से क़यामत तक जिससे मुफ़र नहीं वो गवाह है। अदालत मुख़्तसर नमून-ए-क़यामत है और क़यामत वसीअ पैमाने पर नमून-ए-अदालत। फ़र्क़ सिर्फ़ ये है कि अदालत के गवाह इंसान होते हैं और क़यामत के गवाह इंसानी कमज़ोरियां या फ़रिश्ते। बहरहाल