रज़ी रज़ीउद्दीन
ग़ज़ल 11
नज़्म 4
अशआर 14
उस का जल्वा दिखाई देता है
सारे चेहरों पे सब किताबों में
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क़ल्ब-ओ-जिगर के दाग़ फ़रोज़ाँ किए हुए
हैं हम भी एहतिमाम-ए-बहाराँ किए हुए
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चश्मा-ए-नाब न बढ़ कर जुनूँ सैलाब बने
बह न जाए कि ये मिट्टी का मकाँ है अब के
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तुम्हारे शहर में क्यूँ आज हू का आलम है
सबा इधर से गुज़र कर उधर गई कि नहीं
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