रिफ़अत सुलतान के शेर
दिल में कोई ख़ुशी नहीं लेकिन
आदतन मुस्कुरा रहा हूँ मैं
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ग़म-ए-हयात से इतनी भी है कहाँ फ़ुर्सत
कि तेरी याद में जी भर के रो लिया जाए
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तू मिरी बात का जवाब न दे
मैं समझता हूँ ख़ामुशी की ज़बाँ
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मुझे भी यूँ तो बड़ी आरज़ू है जीने की
मगर सवाल ये है किस तरह जिया जाए
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उम्र भर तुझ को देखने पर भी
ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा कम नहीं होता
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अब इस मक़ाम पे लाई है ज़िंदगी मुझ को
कि चाहता हूँ तुझे भी भुला दिया जाए
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जलता रहा हूँ ज़ीस्त के दोज़ख़ में उम्र भर
ये और बात है मिरी कोई ख़ता नहीं
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जी रहा हूँ कुछ इस तरह जैसे
आग लग जाए और हो न धुआँ
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