साइल देहलवी का परिचय
आह करता हूँ तो आते हैं पसीने उन को
नाला करता हूँ तो रातों को वो डर जाते हैं
दाग़ की बनाई हुई लफ्ज़-ओ-मानी की रिवायत को बरतने और आगे बढ़ाने वालों में साइल का नाम बहुत अहम है। साइल दाग़ के शागिर्द भी थे और फिर उनके दामाद भी हुए। उन्होंने लगभग सारी क्लासिकी विधाओं में शाइरी की और अपने वक़्त में बरपा होने वाली शेरी महफ़िलों और मुशाइरों में बहुत लोकप्रिय रहे।
नवाब सिराजुद्दीन ख़ाँ साइल की पैदाइश 25 मार्च 1864 को दिल्ली में हुई। वह मिर्ज़ा शहाबुद्दीन अहमद ख़ाँ साक़िब के बेटे और नवाब ज़ियाउद्दीन अहमद ख़ाँ नय्यर दरख़्शाँ जागीरदार लोहारू के पोते थे। बचपन में ही उनके पिता का देहांत हो गया, अतः चचा और दादा ने उनकी परवरिश की। ग़ालिब के शागिर्द नवाब ग़ुलाम हुसैन ख़ाँ मह्व की शागिर्दी का गौरव प्राप्त हुआ।
दाग़ के इन्तिक़ाल के बाद साइल और बेख़ुद देहलवी दाग़ के उत्तराधिकारी के दावेदार थे, इसलिये उन दोनों के समर्थकों में तकरार और खीँचतान होती रही। शाहिद अहमद देहलवी ने उन खींचतान के बारे में लिखा है, “देहली में बेख़ुद वालों और साइल वालों के बड़े-बड़े पाले होते। अक्सर मुशाइरों में मार-पीट तक की नौबत पहुँच जाती। साइल साहब उन झगड़ों से बहुत घबराते थे और अन्ततः उन्होंने देहली के मुशाइरों में शरीक होना ही छोड़ दिया.”
25 अक्टूबर 1945 को देहली में साइल का इन्तिक़ाल हुआ और संदल ख़ाना बाबर महरौली में दफ़्न किया गया।