साबिर के शेर
चिलचिलाती-धूप थी लेकिन था साया हम-क़दम
साएबाँ की छाँव ने मुझ को अकेला कर दिया
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तिरे तसव्वुर की धूप ओढ़े खड़ा हूँ छत पर
मिरे लिए सर्दियों का मौसम ज़रा अलग है
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सारे मंज़र हसीन लगते हैं
दूरियाँ कम न हों तो बेहतर है
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रखे रखे हो गए पुराने तमाम रिश्ते
कहाँ किसी अजनबी से रिश्ता नया बनाएँ
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मुझ से कल महफ़िल में उस ने मुस्कुरा कर बात की
वो मिरा हो ही नहीं सकता ये पक्का कर दिया
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ये कारोबार-ए-मोहब्बत है तुम न समझोगे
हुआ है मुझ को बहुत फ़ाएदा ख़सारे में
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हम उस की ख़ातिर बचा न पाएँगे उम्र अपनी
फ़ुज़ूल-ख़र्ची की हम को आदत सी हो गई है
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हँस हँस के उस से बातें किए जा रहे हो तुम
'साबिर' वो दिल में और ही कुछ सोचता न हो
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सभी मुसाफ़िर चलें अगर एक रुख़ तो क्या है मज़ा सफ़र का
तुम अपने इम्काँ तलाश कर लो मुझे परिंदे पुकारते हैं
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सैंत कर ईमान कुछ दिन और रखना है अभी
आज-कल बाज़ार में मंदी है सस्ता है अभी
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फ़स्ल बोई भी हम ने काटी भी
अब न कहना ज़मीन बंजर है
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उस के शर से मैं सदा माँगता रहता हूँ पनाह
इसी दुनिया से मोहब्बत भी बला की है मुझे
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यहाँ पे हँसना रवा है रोना है बे-हयाई
सुक़ूत-ए-शहर-ए-जुनूँ का मातम ज़रा अलग है
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ये क्या बद-मज़ाक़ी है गर्द झाड़ते क्यूँ हो
इस मकान-ए-ख़स्ता में यार हम भी रहते हैं
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