सादिक़
ग़ज़ल 9
नज़्म 12
अशआर 7
काट आगाहियों की फ़स्ल मगर
ज़ेहन में कुछ नए सवाल उगा
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फ़ुर्सत हो तो ये जिस्म भी मिट्टी में दबा दो
लो फिर मैं ज़माँ और मकाँ से निकल आया
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गुमाँ न था कि लिफ़ाफ़े में ख़त के बदले वो
लहू-लुहान तड़पती ज़बान रख देगा
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उन की याद में बहते आँसू ख़ुश्क अगर हो जाएँगे
सात समुंदर अपनी ख़ाली आँखों में भर लाऊँगा
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उठा ही लाया सभी रास्ते वो काँधों पर
यक़ीन उस पे न करता तो मैं किधर जाता
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