बनावट हो तो ऐसी हो कि जिस से सादगी टपके
ज़ियादा हो तो असली हुस्न छुप जाता है ज़ेवर से
सफ़ी नाम सैयद अली नक़ी ज़ैदी था, साक़ी तख़ल्लुस करते थे। पिता का नाम सैयद फ़ज़ल हसन था। आरम्भिक शिक्षा पिता से हासिल करने के बाद नजमुद्दीन काकोरवी से फ़ारसी और मौलवी अहमद अली से अरबी ज़बान सीखी। केनिंग कालेज में इन्ट्रेंस की शिक्षा प्राप्त की और केनिंग कालेज से सम्बंधित स्कूल में अंग्रेज़ी ज़बान के शिक्षक के रूप में नियुक्त हुए। 1883 में सरकारी नौकरी की और दीवानी कचहरी में विभिन्न पदों पर कार्य किया।
सफ़ी ने लखनऊ के आम शे’री मिज़ाज से अलग हट कर नज़्म की विधा में विशेष रूचि ली। उन्होंने क्रमवार राष्ट्रीय नज़्में भी कहीं जो विशेष रूप से उनके दौर के सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक समस्याओं को चित्रित करती हैं। इसके अलावा क़सीदा, रुबाई और मसनवी जैसी विधाओं में भी रचनाएं कीं। सफ़ी की नज़्में और ग़ज़लें पढ़कर अंदाज़ा होता है कि वह चेतनात्मक या अवचेत्नात्मक रूप से लखनऊ की विशेष पारंपरिक चलन को बदलने के लिए प्रयत्नशील थे।