सहबा लखनवी
ग़ज़ल 4
नज़्म 18
अशआर 3
कारवाँ के चलने से कारवाँ के रुकने तक
मंज़िलें नहीं यारो रास्ते बदलते हैं
- अपने फ़ेवरेट में शामिल कीजिए
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
मौज मौज तूफ़ाँ है मौज मौज साहिल है
कितने डूब जाते हैं कितने बच निकलते हैं
- अपने फ़ेवरेट में शामिल कीजिए
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
कितने दीप बुझते हैं कितने जलते हैं
अज़्म-ए-ज़िंदगी ले कर फिर भी लोग चलते हैं
- अपने फ़ेवरेट में शामिल कीजिए
-
शेयर कीजिए