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साहिर लुधियानवी का परिचय
उपनाम : 'साहिर'
मूल नाम : अब्दुल हई फ़ज़ल मुहम्मद
जन्म : 08 Mar 1921 | लुधियाना, पंजाब
निधन : 25 Oct 1980
LCCN :n85282385
दुनिया ने तजरबात ओ हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं
साहिर ने आकृति के बजाए मायनी और विषय और सबसे ज़्यादा अंदाज़-ए-बयान में संघर्ष किया है। उसकी शायरी की बुनियाद शिद्दत-ए-एहसास पर है और मेरे ख़्याल में उसकी शैली का सौंदर्य भी शदीद एहसास से ही रचित है, साथ ही उसे इब्हाम (निगूढ़ता) से भी कोई वास्ता नहीं।” अहमद नदीम क़ासिमी
अपनी शायरी के ज़रिए, ख़ास तौर से, नौजवानों के दिलों को गरमाने और फिल्मों के लिए अदबीयत से भरपूर नग़मे लिखने के नतीजे में विरोधियों की तरफ़ से “युवा जोश का शायर” क़रार दिए जानेवाले साहिर लुधियानवी उन मक़बूल आम शायरों में से एक हैं जिन पर तरक़्क़ी-पसंद शायरी बजा तौर पर नाज़ कर सकती है। जहां तक Teenagers का शायर होने का ताल्लुक़ है, इसका जवाब सरदार जाफ़री ने ये कह कर दे दिया है कि “जिसने साहिर लुधियानवी को ये कह कर कमतर दर्जे का शायर साबित करने की कोशिश की है कि वो नए उम्र के लड़के लड़कियों का शायर है, उसने साहिर की शायरी की सही क़द्र-ओ-क़ीमत बयान की है। नए उम्र के लड़के-लड़कियों के लिए शायरी करना कोई आसान काम नहीं है। उनके दिल में तर-ओ-ताज़ा उमंगें होती हैं, आलूदगी से पाक आरज़ूऐं होती हैं, ज़िंदगी के ख़ूबसूरत ख़्वाब होते हैं और कुछ कर गुज़रने का हौसला होता है। उनकी भावनाओं और दशाओं को साहिर ने जिस तरह शायराना रूप दिया है वो उसके किसी समकालीन शायर ने नहीं दिया। उससे पहले के शायरों से उसकी अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। बहरहाल ये तो विरोधियों के इल्ज़ाम का जवाब था। हक़ीक़त ये है कि रूमान और प्रतिरोध के मिश्रण से साहिर ने अपनी व्यक्तिवादिता के साथ प्रगतिशील आंदोलन की शायरी को एकक नया मोड़ दिया। साहिर की शैली की नरमी, शिष्टता और उन्मत्ता उनके तर्ज़-ओ-आहंग को उनके सकलीनों से जुदा करती है। वैसे साहिर की रूमानी नज़्मों का उद्देश्य रूमानी है और सियासी व इन्क़िलाबी नज़्मों का उस्लूब-ओ-आहंग प्रतिरोधात्मक है। उनकी सियासी और प्रतिरोध की नज़्मों में एक गर्मी, एक तपिश है। उनका अंदाज़-ए-बयान, उनका शब्दों का चयन, उपमाओं और रूपकों के इस्तेमाल का तरीक़ा इतना मुकम्मल और व्यापक है जो दूसरे शायरों की पहुँच से बाहर है। बड़ी उम्र के शायर भी उनको हक़ीक़ी शायर तस्लीम करते हैं और उनके अशआर तन्क़ीद के मयार पर भी पूरे उतरते हैं। गेयता, मूसीक़ीयत और तग़ज़्ज़ुल के मिश्रण ने उनकी ग़ज़लों, नज़्मों और गीतों में तासीर की शिद्दत पैदा करते हुए,उन्हें हर ख़ास-ओ-आम में लोकप्रिय बना दिया।
साहिर लुधियाना के एक जागीरदार घराने में 8 मार्च 1921को पैदा हुए और उनका नाम अब्दुलहई रखा गया। उनके वालिद का नाम चौधरी फ़ज़ल मुहम्मद था और वो उनकी ग्यारहवीं, लेकिन खु़फ़ीया, बीवी सरदार बेगम से उनकी पहली औलाद थे। साहिर की पैदाइश के बाद उनकी माँ ने इसरार किया कि उनके रिश्ता को बाक़ायदा शक्ल दी जाए ताकि आगे चल कर विरासत का कोई झगड़ा न पैदा हो। चौधरी साहब इसके लिए राज़ी नहीं हुए तो सरदार बेगम साहिर को लेकर शौहर से अलग हो गईं। इसके बाद साहिर की सपुर्दगी के लिए दोनों पक्ष में मुद्दत तक मुक़द्दमेबाज़ी हुई। साहिर की परवरिश उनके नानिहाल में हुई। जब स्कूल जाने की उम्र हुई तो उनका दाख़िला मालवा ख़ालिसा स्कूल में करा दिया गया जहां से उन्होंने मैट्रिक का इम्तिहान पास किया। उस ज़माने में लुधियाना उर्दू का गतिशील और सरगर्म केंद्र था। यहीं से उन्हें शायरी का शौक़ पैदा हुआ और मैट्रिक में पहुंचते पहुंचते वो शे’र कहने लगे। 1939 में उसी स्कूल से एंट्रेंस पास करने के बाद उन्होंने गर्वनमेंट कॉलेज लुधियाना में दाख़िला लिया। उसी ज़माने में उनकी राजनीतिक चेतना जागृत होने लगी और वो कम्युनिस्ट आंदोलन की तरफ़ आकर्षित हो गए। देश और राष्ट्र के हालात ने उनके अंदर विद्रोह और बग़ावत पैदा की। बी.ए के आख़िरी साल में वो अपनी एक सहपाठी ईशर कौर पर आशिक़ हुए और कॉलेज से निकाले गए। वो कॉलेज से बी.ए नहीं कर सके लेकिन उसकी फ़िज़ा ने उनको एक ख़ूबसूरत रूमानी शायर बना दिया। उनका पहला संग्रह “तल्ख़ियां” 1944 में प्रकाशित हुआ और हाथों-हाथ लिया गया। कॉलेज छोड़ने के बाद वो लाहौर चले गए और दयाल सिंह कॉलेज में दाख़िला ले लिया लेकिन अपनी सियासी सरगर्मीयों की वजह से वो वहां से भी निकाले गए फिर उनका दिल तालीम की तरफ़ से उचाट हो गया। वो उस ज़माने के मयारी अदबी रिसाला “अदब-ए-लतीफ़” के एडिटर बन गए। बाद में उन्होंने “सवेरा” और अपने अदबी रिसाले “शाहकार” का भी संपादन किया। उसी ज़माने में उनके कॉलेज के एक दोस्त आज़ादी की आंदोलन पर एक फ़िल्म “आज़ादी की राह पर” बना रहे थे। उन्होंने साहिर को उसके गीत लिखने की दावत दी और साहिर बंबई चले आए। यह फ़िल्म नहीं चली। साहिर को बतौर गीतकार फ़िल्मी दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़े, इसकी एक वजह ये भी थी कि वो बाज़ारू गीत लिखने को तैयार नहीं होते थे। आख़िर एक दोस्त के माध्यम से उनकी मुलाक़ात एस.डी बर्मन से हुई जिनको अपने मिज़ाज के किसी गीतकार की ज़रूरत थी। बर्मन ने उनको अपनी एक धुन सुनाई और साहिर ने तुरंत उस पर “ठंडी हवाएं लहरा के आएं” के बोल लिख दिए। बर्मन फड़क उठे। उसके बाद वो एस.डी बर्मन की धुनों पर बाक़ायदगी से गीत लिखने लगे और इस जोड़ी ने कई यादगार गाने दिए।
साहिर ने बचपन और जवानी में बहुत मुश्किल और कठिन दिन गुज़ारे जिसकी वजह से उनकी शख़्सियत में शदीद तल्ख़ी घुल गई थी। दुनिया से अपने अभावों का बदला लेने की एक ज़ीरीं लहर उनकी शख़्सियत में रच बस गई थी जो समय समय पर सामने आते रहते थे। उन्होंने यूँही नहीं कह दिया था “दुनिया ने तजुर्बात-ए-हवादिस की शक्ल में/ जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ में।” उनके प्रेम प्रसंगों के क़िस्से भी उसी क्रम में आते हैं। अमृता प्रीतम और सुधा मल्होत्रा के साथ उनके इश्क़ का ख़ूब चर्चा रहा। उन्होंने कभी शादी नहीं की। लड़कियों के साथ उनका मामला कुछ इस तरह था कि पहले वो किसी पर आशिक़ होते और जब वो ख़ुद भी उनके इश्क़ में गिरफ़्तार हो जाती तो माशूक़ बन जाते और उसके साथ वही सब करते जो उर्दू ग़ज़ल की जफ़ाकार माशूक़ा अपने आशिक़ों के साथ करती है और बिलआख़िर अलग हो जाते और इस तरह वो ज़िंदगी की महरूमियों से अपना इंतिक़ाम लेकर ख़ुद अपना सीना लहू-लुहान करते। अमृता के साथ उनका मुआमला बड़ा रूमानी और अजीब था। अमृता शादीशुदा होने के बावजूद उन पर मर मिटी थीं। आलम ये था कि जब साहिर उनसे मिलते और सिगरेटें फूंक कर वापस चले जाते तो वो ऐश ट्रे से उनकी बुझी हुई सिगरेटों के टोटे चुनतीं और उन्हें सुलगा कर अपने होंटों से लगातीं। दूसरी तरफ़ साहिर साहब उस प्याली को धोने की किसी को इजाज़त न देते जिसमें अमृता ने उनके घर पर चाय पी होती। वो उस झूठी प्याली को बतौर यादगार सजा कर रखते। लेकिन अमृता की आमादगी के बावजूद उन्होंने उनसे शादी नहीं की। अमृता समझदार होने के बावजूद अपने इश्क़ की नाकामी के लिए ख़ुद को साहिर की नज़र में “ज़्यादा ही ख़ूबसूरत” होने को ज़िम्मेदार ठहराती रहीं। फिर सुधा मल्होत्रा से उनका चक्कर चला और ख़ूब चला। साहिर ने सुधा को फ़िल्म इंडस्ट्री में प्रोमोट करने में कोई कसर न उठा रखी और ये सब करने के बाद “चलो एक बार फिर से, अजनबी बन जाएं हम दोनों” कह कर किनारा-कश हो गए। ज़िंदगी से उन्हें जो कुछ मिला था उसे लौटाने का उनका ये तरीक़ा निराला था। फिल्मों के निहायत कामयाब गीतकार बन जाने और आर्थिक रूप सम्पन्न हो जाने के बाद साहिर में बददिमाग़ी की हद तक अभिमान पैदा हो गया था। उन्होंने शर्त रख दी कि वो किसी धुन पर गीत नहीं लिखेंगे बल्कि उनके गीत पर धुन बनाई जाए। उन्होंने अपने उपकारी एस.डी बर्मन से मुतालिबा किया कि वो हारमोनियम लेकर उनके घर आएं और धुनन बनाएं। बर्मन बहुत बड़े संगीतकार थे, उनको अपना ये अपमान बर्दाश्त नहीं हुआ और फ़िल्म “प्यासा” इस जोड़ी की आख़िरी फ़िल्म साबित हुई। उन्होंने ये भी मुतालिबा किया कि उनको गीत का मुआवज़ा लता मंगेशकर से एक रुपया ज़्यादा दिया जाए जो एक अनुचित शर्त थी। उन्हों बहरहाल एक उचित माँग भी की कि विविधभारती पर प्रसारित किए जानेवाले गानों में गीतकार के नाम का भी ऐलान किया जाए। ये माँग मान ली गई। साहिर ने बेशुमार हिट गाने लिखे। उनको 1964 और 1977 में बेहतरीन गीतकार का फ़िल्म फ़ेयर एवार्ड मिला।
साहिर ने जितने प्रयोग शायरी में किए वो दूसरों ने कम ही किए होंगे। उन्होंने सियासी शायरी की है, रूमानी शायरी की है, नफ़सियाती शायरी की है और इन्क़िलाबी शायरी की है जिसमें किसानों और मज़दूरों की बग़ावत का ऐलान है। उन्होंने ऐसी भी शायरी की है जो सृजनात्मक रूप से साहिरी की श्रेणी में आती है। साहिर की शायरी, विशेष रूप से नज़्मों में, उनके व्यक्तिगत अनुभवों और अवलोकन का ख़ास प्रभाव नज़र आता है। उनके निजी अनुभव और संवेदनाओं ने उनकी शायरी में, दूसरे शायरों के मुक़ाबले में ज़्यादा सच्चाई और गुदाज़ पैदा किया और मुहब्बत के मिश्रण ने उसे सार्वभौमिकता प्रदान की।
उनकी अदबी ख़िदमात के एतराफ़ में उन्हें 1971 में पदमश्री के ख़िताब से नवाज़ा गया।1972 में महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें “जस्टिस आफ़ पीस” एवार्ड दिया। 1973 में “आओ कि कोई ख़्वाब बुनें” की कामयाबी पर उन्हें “सोवियत लैंड नहरू पुरस्कार” और महाराष्ट्र स्टेट लिट्रेरी एवार्ड मिला। 1974 में महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें “स्पेशल एग्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट नामज़द किया। उनकी नज़्मों के अनुवाद दुनिया की विभिन्न भाषाओँ में हो चुके हैं। 8 मार्च 2013 ई. को उनके जन्मदिन के अवसर पर भारतीय डाक विभाग ने एक यादगारी टिकट जारी किया। 1980 में दिल का दौरा पड़ने से उनका इंतिक़ाल हुआ।
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