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सैफ़ी आज़मी

सैफ़ी आज़मी

अशआर 4

काश इतना ही समझ लेते ये अहल-ए-कारवाँ

फ़ासले बढ़ जाते हैं सहमी हुई रफ़्तार से

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आँख नम रुख़ पर उदासी दर्द भी दिल के क़रीब

क्या मोहब्बत गई है अपनी मंज़िल के क़रीब

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हर लफ़्ज़-ए-आरज़ू में झलक उन की गई

उन को निकालता ही रहा दास्ताँ से मैं

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ख़ुशी से फूलें अहल-ए-सहरा अभी कहाँ से बहार आई

अभी तो पहुँचा है आबलों तक मिरा मज़ाक़-ए-बरहना-पाई

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