सलीम शहज़ाद
अशआर 8
अन-कही कह अन-सुनी बातें सुना
रह गया जो कुछ भी सोचा सोच ले
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आग भी बरसी दरख़्तों पर वहीं
काल बस्ती में जहाँ पानी का था
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कब तक इन आवारा मौजों का तमाशा देखना
गिन चुके हो साअतों के तार तो वापस चलो
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ज़र्द पत्ते में कोई नुक़्ता-ए-सब्ज़
अपने होने का पता काफ़ी है
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हवा की ज़द में पत्ते की तरह था
वो इक ज़ख़्मी परिंदे की तरह था
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