सरफ़राज़ दानिश
ग़ज़ल 5
अशआर 7
ग़म का सूरज तो डूबता ही नहीं
धूप ही धूप है किधर जाएँ
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चंद लम्हे को तू ख़्वाबों में भी आ कर झाँक ले
ज़िंदगी तुझ से मिले कितने ज़माने हो गए
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शहर भर के आईनों पर ख़ाक डाली जाएगी
आज फिर सच्चाई की सूरत छुपा ली जाएगी
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हम अपने जलते हुए घर को कैसे रो लेते
हमारे चारों तरफ़ एक ही नज़ारा था
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