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सरफ़राज़ दानिश

1942 | भोपाल, भारत

सरफ़राज़ दानिश

ग़ज़ल 5

 

अशआर 7

ग़म का सूरज तो डूबता ही नहीं

धूप ही धूप है किधर जाएँ

चंद लम्हे को तू ख़्वाबों में भी कर झाँक ले

ज़िंदगी तुझ से मिले कितने ज़माने हो गए

शहर भर के आईनों पर ख़ाक डाली जाएगी

आज फिर सच्चाई की सूरत छुपा ली जाएगी

हम अपने जलते हुए घर को कैसे रो लेते

हमारे चारों तरफ़ एक ही नज़ारा था

हमारा शेर भी लौह-ए-तिलिस्म है शायद

हर एक रुख़ से हमें बे-नक़ाब करता है

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आरज़ूओं की रुतें बदले ज़माने हो गए

इस से पहले कि सर उतर जाएँ

लम्हा लम्हा तजरबा होने लगा

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