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सेहर इश्क़ाबादी

1903 - 1978

सेहर इश्क़ाबादी

ग़ज़ल 11

अशआर 8

पहली सी लज़्ज़तें नहीं अब दर्द-ए-इश्क़ में

क्यूँ दिल को मैं ने ज़ुल्म का ख़ूगर बना दिया

आह करता हूँ तो आती है पलट कर ये सदा

आशिक़ों के वास्ते बाब-ए-असर खुलता नहीं

वो दर्द है कि दर्द सरापा बना दिया

मैं वो मरीज़ हूँ जिसे ईसा भी छोड़ दे

हुस्न का हर ख़याल रौशन है

इश्क़ का मुद्दआ किसे मालूम

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एक हम हैं रात भर करवट बदलते ही कटी

एक वो हैं दिन चढ़े तक जिन का दर खुलता नहीं

पुस्तकें 1

 

ऑडियो 5

जब सबक़ दे उन्हें आईना ख़ुद-आराई का

जिस से वफ़ा की थी उम्मीद उस ने अदा किया ये हक़

मेरी क़िस्मत से क़फ़स का या तो दर खुलता नहीं

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