शबाना यूसुफ़ के शेर
ख़ुद चराग़ों को अंधेरों की ज़रूरत है बहुत
रौशनी हो तो उन्हें लोग बुझाने लग जाएँ
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इक यही सोच बिछड़ने नहीं देती तुझ से
हम तुझे बाद में फिर याद न आने लग जाएँ
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अभी से छोटी हुई जा रही हैं दीवारें
अभी तो बेटी ज़रा सी मिरी बड़ी हुई है
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मेरे आने की ख़बर सुन के वो दौड़ा आता
उस को पहुँचा नहीं पैग़ाम यही लगता है
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अगर बिछड़ने का उस से कोई मलाल नहीं
'शबाना' अश्क से फिर आँख क्यूँ भरी हुई है
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मुझ को भी कर देगा रुस्वा वो ज़माने भर में
ख़ुद भी हो जाएगा बदनाम यही लगता है
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ये तो सोचा ही नहीं उस को जुदा करते हुए
चुन लिया है ग़म भी ख़ुशियों को रिहा करते हुए
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मैं हाथ बाँधे हुए लौट आई हूँ घर में
कि मेरे पर्स में इक आरज़ू मरी हुई है
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