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शहबाज़ राजा

अशआर 5

कहीं भी ख़ुद को कभी बे-निशाँ होने दिया

सफ़र कठिन था मगर राएगाँ होने दिया

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वो सर-ए-महफ़िल बढ़ाते जा रहे हैं गुफ़्तुगू

मैं मगर कतरा रहा हूँ बात की तफ़्सील से

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आसमाँ-दर-आसमाँ असरार मुझ पर खुल गए

मैं उड़ाया जा रहा हूँ शहपर-ए-जिबरील से

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गवारा कैसे करें उस की तमकनत 'शहबाज़'

कि कुछ तो हम भी हवा अपने सर में रखते हैं

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हासिल-ए-कुन भी निगाहों का इशारा तो नहीं

ये जो दिल मुझ में धड़कता है तुम्हारा तो नहीं

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