शाहिद माकुली
ग़ज़ल 17
अशआर 2
मैं इस लिए हुजूम का हिस्सा नहीं बना
सूरज कभी नुजूम का हिस्सा नहीं बना
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समर दरख़्त से गिरते हैं हम निगाहों से
कहीं कशिश का 'अमल है कहीं गुरेज़ का है
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