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शाकिर कलकत्तवी

1914 - 1968

शाकिर कलकत्तवी

ग़ज़ल 3

 

अशआर 4

ये माजरा-ए-मोहब्बत समझ में सका

वो हाथ आए तो मैं हाथ उन्हें लगा सका

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रोने के बदले अपनी तबाही पे हँस दिया

'शाकिर' ने इस तरह गिला-ए-आसमाँ किया

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क़सम ही नहीं है फ़क़त इस का शेवा

तग़ाफ़ुल भी है एक अंदाज़ उस का

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ज़रा चश्म-ए-करम से देख लो तुम

सहारा ढूँढता हूँ ज़िंदगी का

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