शारिक़ कैफ़ी
ग़ज़ल 175
नज़्म 66
अशआर 66
घर में ख़ुद को क़ैद तो मैं ने आज किया है
तब भी तन्हा था जब महफ़िल महफ़िल था मैं
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वो बात सोच के मैं जिस को मुद्दतों जीता
बिछड़ते वक़्त बताने की क्या ज़रूरत थी
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कौन कहे मा'सूम हमारा बचपन था
खेल में भी तो आधा आधा आँगन था
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इंतिहा तक बात ले जाता हूँ मैं अब उसे ऐसे ही समझाता हूँ मैं कुछ हवा कुछ दिल धड़कने की सदा शोर में कुछ सुन नहीं पाता हूँ मैं बिन कहे आऊँगा जब भी आऊँगा मुंतज़िर आँखों से घबराता हूँ मैं याद आती है तिरी संजीदगी और फिर हँसता चला जाता हूँ मैं फ़ासला रख के भी क्या हासिल हुआ आज भी उस का ही कहलाता हूँ मैं छुप रहा हूँ आइने की आँख से थोड़ा थोड़ा रोज़ धुँदलाता हूँ मैं अपनी सारी शान खो देता है ज़ख़्म जब दवा करता नज़र आता हूँ मैं सच तो ये है मुस्तरद कर के उसे इक तरह से ख़ुद को झुटलाता हूँ मैं आज उस पर भी भटकना पड़ गया रोज़ जिस रस्ते से घर आता हूँ मैं
कहीं न था वो दरिया जिस का साहिल था मैं आँख खुली तो इक सहरा के मुक़ाबिल था मैं हासिल कर के तुझ को अब शर्मिंदा सा हूँ था इक वक़्त कि सच-मुच तेरे क़ाबिल था मैं किस एहसास-ए-जुर्म की सब करते हैं तवक़्क़ो' इक किरदार किया था जिस में क़ातिल था मैं कौन था वो जिस ने ये हाल किया है मेरा किस को इतनी आसानी से हासिल था मैं सारी तवज्जोह दुश्मन पर मरकूज़ थी मेरी अपनी तरफ़ से तो बिल्कुल ही ग़ाफ़िल था मैं जिन पर मैं थोड़ा सा भी आसान हुआ हूँ वही बता सकते हैं कितना मुश्किल था मैं नींद नहीं आती थी साज़िश के धड़के में फ़ातेह हो कर भी किस दर्जा बुज़दिल था मैं घर में ख़ुद को क़ैद तो मैं ने आज किया है तब भी तन्हा था जब महफ़िल महफ़िल था मैं
मुमकिन ही न थी ख़ुद से शनासाई यहाँ तक ले आया मुझे मेरा तमाशाई यहाँ तक रस्ता हो अगर याद तो घर लौट भी जाऊँ लाई थी किसी और की बीनाई यहाँ तक शायद तह-ए-दरिया में छुपा था कहीं सहरा मेरी ही नज़र देख नहीं पाई यहाँ तक महफ़िल में भी तन्हाई ने पीछा नहीं छोड़ा घर में न मिला मैं तो चली आई यहाँ तक सहरा है तो सहरा की तरह पेश भी आए आया है इसी शौक़ में सौदाई यहाँ तक इक खेल था और खेल में सोचा भी नहीं था जुड़ जाएगा मुझ से वो तमाशाई यहाँ तक ये उम्र है जो उस की ख़ता-वार है 'शारिक़' रहती ही नहीं बातों में सच्चाई यहाँ तक
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शायर अपना कलाम पढ़ते हुए

Shariq Kaifi, one of the leading Urdu poet from India reciting his ghazals at Mushaira at Delhi in 2014 organized by Rekhta.org - the largest website for Urdu poetry. शारिक़ कैफ़ी

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