शहपर रसूल
ग़ज़ल 23
अशआर 5
मुझे भी लम्हा-ए-हिजरत ने कर दिया तक़्सीम
निगाह घर की तरफ़ है क़दम सफ़र की तरफ़
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मैं ने भी देखने की हद कर दी
वो भी तस्वीर से निकल आया
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कोई साया न कोई हम-साया
आब-ओ-दाना ये किस जगह लाया
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दूसरों के ज़ख़्म बुन कर ओढ़ना आसाँ नहीं
सब क़बाएँ हेच हैं मेरी रिदा के सामने
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रेख़्ता का इक नया मज्ज़ूब है 'शहपर' रसूल
शोहरत उस के नाम पर इक नंग है बोहतान है
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