सुहैल अख़्तर के शेर
पहाड़ जैसे दिनों को तो काट लूँ लेकिन
निकल न पाऊँ मैं इक रात की गिरानी से
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ज़िंदगी जिस ने तल्ख़ की मेरी
वो मुझे ज़िंदगी से प्यारा है
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