सुलेमान ख़ुमार के शेर
उम्र भर चल के भी पाई नहीं मंज़िल हम ने
कुछ समझ में नहीं आता ये सफ़र कैसा है
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मैं वाक़िफ़ हूँ तिरी चुप-गोइयों से
समझ लेता हूँ तेरी अन-कही भी
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