सुल्तान अख़्तर
ग़ज़ल 55
अशआर 11
फ़ुर्सत में रहा करते हैं फ़ुर्सत से ज़्यादा
मसरूफ़ हैं हम लोग ज़रूरत से ज़्यादा
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मैं वो सहरा जिसे पानी की हवस ले डूबी
तू वो बादल जो कभी टूट के बरसा ही नहीं
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सफ़र सफ़र मिरे क़दमों से जगमगाया हुआ
तरफ़ तरफ़ है मिरी ख़ाक-ए-जुस्तुजू रौशन
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सामने आँखों के फिर यख़-बस्ता मंज़र आएगा
धूप जम जाएगी आँगन में दिसम्बर आएगा
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हर एक दास्ताँ तुझ से शुरूअ होती है
हर एक क़िस्सा तिरे नाम पर तमाम हुआ
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पुस्तकें 10
चित्र शायरी 2
वीडियो 21
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