सय्यद ज़ामिन अब्बास काज़मी
ग़ज़ल 12
नज़्म 3
अशआर 11
हिज्र होगा न कोई हिज्र का नौहा होगा
बाज़ आते हैं मोहब्बत से जो होगा होगा
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मैं जो कहता हूँ मुझ से दूर रहो
ये नसीहत है इल्तिमास नहीं
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पहले भी जिस पे मिरे सब्र की हद ख़त्म हुई
तू ने कर दी ना वही बात दोबारा मिरे दोस्त
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तुम्हारी बात से इतना भी दुख नहीं पहुँचा
मगर जो पहुँचा तुम्हारी वज़ाहतों से मुझे
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जैसे मैं दोस्तों से हँस के गले मिलता हूँ
कोई मामूली अदाकार नहीं कर सकता
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