सय्यदा नफ़ीस बानो शम्अ के शेर
बहुत ग़ुरूर था बिफरे हुए समुंदर को
मगर जो देखा मिरे आँसुओं से कम-तर था
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निगाह ओ दिल में वही कर्बला का मंज़र था
मैं तिश्ना-लब थी मिरे सामने समुंदर था
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ख़्वाब और नींदों का ख़त्म हो गया रिश्ता
मुद्दतों से आँखों में रत-जगों का मौसम है
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खिड़कियाँ खोल लूँ हर शाम यूँही सोचों की
फिर उसी राह से यादों को गुज़रता देखूँ
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मेहर-ओ-वफ़ा ख़ुलूस-ए-तमन्ना मिलन की आस
कुछ कम नहीं कि हम ने ये मोती बचा लिए
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