तुफ़ैल चतुर्वेदी
ग़ज़ल 5
अशआर 10
हम बुज़ुर्गों की रिवायत से जुड़े हैं भाई
नेकियाँ कर के कभी फल नहीं माँगा करते
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नफ़रतों का अक्स भी पड़ने न देना ज़ेहन पर
ये अँधेरा जाने कितनों का उजाला खा गया
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सफ़र अंजाम तक पहुँचे तो कैसे
मैं अपने रास्ते में ख़ुद खड़ा हूँ
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हर तरफ़ फैला हुआ बे-सम्त बे-मंज़िल सफ़र
भीड़ में रहना मगर ख़ुद को अकेला देखना
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सभी ज़ख़्मों के टाँके खुल गए हैं
हमें हँसना बहुत महँगा पड़ा है
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