उर्फ़ी आफ़ाक़ी
ग़ज़ल 11
अशआर 4
चला था मैं तो समुंदर की तिश्नगी ले कर
मिला ये कैसा सराबों का सिलसिला मुझ को
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वो आए जाता है कब से पर आ नहीं जाता
वही सदा-ए-क़दम का है सिलसिला कि जो था
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दीवाना-वार नाचिये हँसिए गुलों के साथ
काँटे अगर मिलें तो जिगर में चुभोइए
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मालूम है 'उर्फ़ी' जो है क़िस्मत में हमारी
सहरा ही कोई गिर्या-ए-शबनम को मिलेगा
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