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उर्फ़ी आफ़ाक़ी

1936 | लखनऊ, भारत

उर्फ़ी आफ़ाक़ी

ग़ज़ल 11

अशआर 4

चला था मैं तो समुंदर की तिश्नगी ले कर

मिला ये कैसा सराबों का सिलसिला मुझ को

वो आए जाता है कब से पर नहीं जाता

वही सदा-ए-क़दम का है सिलसिला कि जो था

दीवाना-वार नाचिये हँसिए गुलों के साथ

काँटे अगर मिलें तो जिगर में चुभोइए

मालूम है 'उर्फ़ी' जो है क़िस्मत में हमारी

सहरा ही कोई गिर्या-ए-शबनम को मिलेगा

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