विभा जैन 'ख़्वाब' के शेर
या तो ख़ुद को सिपुर्द-ए-'इश्क़ न कर
या जो होता है फिर मलाल न पूछ
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उस को सोचूँ तो ध्यान में मेरे
ख़ुशबू आती है पहली बारिश की
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क्यों कोई कोख जो सूनी हो वो शर्मिंदा हो
क्या ज़रूरी है कि हर सीप से मोती निकले
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तेरे जाने के बा'द भी तुझ से
हम बहुत देर तक झगड़ते रहे
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फिर वही रात वही चाँद वही तुम वही मैं
क्या किसी छत के मुक़द्दर में लिखे जाएँगे
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ज़िंदगी भी है इक बुरी 'आदत
जान जाए तो इस से जाँ छूटे
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अपनी चोटी में बाँध कर जुगनू
शब तिरा इंतिज़ार करती है
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ज़िंदगी यूँ तो नया लफ़्ज़ नहीं है लेकिन
वक़्त के साथ नए इस के म'आनी निकले
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मकान-ए-दिल से रुख़्सत हो गया 'इश्क़
उदासी लौट कर तू घर चली आ
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'अजीब हाल है तुझ से बिछड़ के भी अब तक
ये दिल तुझी से बिछड़ने के डर में रहता है
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वो किसी भूले हुए नग़्मे की धुन के मानिंद
ज़ह्न में है तो मगर याद नहीं आता है
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आँखें हैं एक 'उम्र से गिरवी रखी हुईं
दुख का वो क़र्ज़ है कि उतारा नहीं गया
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इतने बरसों की रत-जगी आँखें
क्या शिकायत करेंगी ख़्वाबों से
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ऐ सखी लिख दिए हैं नाम उन के
रंग होली के गीत फागुन के
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हासिल-ए-ज़िंदगी है वो लम्हा
जब तू मुझ से लिपट के रोया था
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फिर छू गया है प्यार से कोई ज़मीन-ए-दिल
खिलने लगे हैं दश्त में फिर मोगरे के फूल
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