वसीम हैदर
ग़ज़ल 13
नज़्म 1
अशआर 11
क़ैद करता हूँ हसरतें दिल में
फिर इन्हें ख़ुद-कुशी सिखाता हूँ
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मिरे ख़मीर पे सारी ही सर्फ़ हो गई थी
फिर उस के बा'द उदासी नई बनाई गई
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सुनता रहता हूँ तो वो कुछ भी कहे जाता है
उस को लगता है कि मे'यार यही है अपना
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मैं वो पत्थर हूँ कि वहशत में उठा कर जिस को
बे-सबब यूँही कहीं फेंक दिया जाता है
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हम दु'आ को हाथ उठाए गिड़गिड़ाते रह गए
तुम ने तनज़न भी अगर कुछ बात की पूरी हुई
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