ज़फ़र कमाली के शेर
निगाहों में जो मंज़र हो वही सब कुछ नहीं होता
बहुत कुछ और भी प्यारे पस-ए-दीवार होता है
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शौहरों से बीबियाँ लड़ती हैं छापा-मार जंग
राब्ता उन का भी क्या कश्मीर की वादी से है
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वही सुलूक ज़माने ने मेरे साथ किया
किया था जैसा मुशर्रफ़ ने बेनज़ीर के साथ
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इस ज़माने की अजब तिश्ना-लबी है ऐ 'ज़फ़र'
प्यास उस की सिर्फ़ बुझती है हमारे ख़ून से
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