ज़हीर सिद्दीक़ी के शेर
न जाने हम से गिला क्यूँ है तिश्ना-कामों को
हमारे हाथ में मय थी न दौर-ए-साग़र था
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जैसे जैसे आगही बढ़ती गई वैसे 'ज़हीर'
ज़ेहन ओ दिल इक दूसरे से मुंफ़सिल होते गए
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उस के अल्फ़ाज़-ए-तसल्ली ने रुलाया मुझ को
कुछ ज़ियादा ही धुआँ आग बुझाने से उठा
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इतने चेहरों में मुझे है एक चेहरे की तलाश
जिस को मैं ने खो के पाया पा के खोया सुब्ह तक
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दर्द तो ज़ख़्म की पट्टी के हटाने से उठा
और कुछ और भी मरहम के लगाने से उठा
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ज़र्रे ज़र्रे में बिखर जाना है तकमील-ए-हयात
मुझ को ये ज़ेबा नहीं अब ज़ात में सिमटा रहूँ
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