ज़ाहिद फख़री के शेर
उठाना ख़ुद ही पड़ता है थका टूटा बदन 'फ़ख़री'
कि जब तक साँस चलती है कोई कंधा नहीं देता
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रात है सर पर कोई सूरज नहीं
किस लिए फिर साएबानों में रहूँ
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