ज़ाहिदा ज़ैदी
ग़ज़ल 12
नज़्म 17
अशआर 5
मुड़ के देखा तो हमें छोड़ के जाती थी हयात
हम ने जाना था कोई बोझ गिरा है सर से
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ज़िंदगी तू ने तो सच है कि वफ़ा हम से न की
हम मगर ख़ुद तुझे ठुकराएँ ज़रूरी तो नहीं
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हमीं से अंजुमन-ए-इश्क़ मो'तबर ठहरी
हमीं को सौंपी गई ग़म की पासबानी भी
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ख़्वाब तो ख़्वाब हैं पल भर में बिखर जाते हैं
सच तो ये है कि बस इक काहिश-ए-जाँ रक़्स में है
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