ज़करिय़ा शाज़
ग़ज़ल 17
अशआर 24
ऐ गर्दिश-ए-अय्याम हमें रंज बहुत है
कुछ ख़्वाब थे ऐसे कि बिखरने के नहीं थे
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मैं चुप रहा तो आँख से आँसू उबल पड़े
जब बोलने लगा मिरी आवाज़ फट गई
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ये मोहब्बत है इसे देख तमाशा न बना
मुझ से मिलना है तो मिल हद्द-ए-अदब से आगे
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आख़िर ये नाकाम मोहब्बत काम आई
तुझ को खो कर मैं ने ख़ुद को पाया है
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छोड़ आया हूँ पीछे सब आवाज़ों को
ख़ामोशी में दाख़िल होने वाला हूँ
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