ज़ोया शेख़
ग़ज़ल 5
अशआर 7
फिर यूँ हुआ कि ज़िंदगी इक बोझ बन गई
इक शख़्स मेरे हाथ से यक-लख़्त खो गया
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ख़ुद्दार ख़ुद-परस्त हैं ज़िद्दी बला के हैं
हम जो गए तो लौट कर वापस न आएँगे
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वो मिरी सादगी पे मरता है
मुझ को गहनों की क्या ज़रूरत है
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ख़ामुशी का सबब नहीं कुछ भी
मुझ को बस गुफ़्तुगू से नफ़रत है
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सुनो आओ नया इक ज़ख़्म बख़्शो
तुम्हारा हिज्र बूढ़ा हो गया है
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