ज़ाइशा उस्मान
ग़ज़ल 10
अशआर 13
कैसा ये मरहला है कि इक दूसरे से हम
कहने को आश्ना हैं मगर आश्ना नहीं
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कहाँ तक हम निबाहें ज़िंदगी तेरे मसाइब से
कहाँ तक ज़ेब देता है किसी का बा-वफ़ा होना
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ना-तवाँ शख़्स ही पाता है सज़ाएँ अक्सर
गो ख़तावार भी होता है नहीं भी होता
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बड़ी वीरानी है दिल के शजर पर
मोहब्बत के परिंदे उड़ गए क्या
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मुफ़लिसी पाँव की ज़ंजीर थी और
रू-ब-रू आ के ज़रूरत ठहरी
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