आनिस मुईन के शेर
गए ज़माने की चाप जिन को समझ रहे हो
वो आने वाले उदास लम्हों की सिसकियाँ हैं
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इक कर्ब-ए-मुसलसल की सज़ा दें तो किसे दें
मक़्तल में हैं जीने की दुआ दें तो किसे दें
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अंदर की दुनिया से रब्त बढ़ाओ 'आनिस'
बाहर खुलने वाली खिड़की बंद पड़ी है
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उतारा दिल के वरक़ पर तो कितना पछताया
वो इंतिसाब जो पहले बस इक किताब पे था
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तुम्हारे नाम के नीचे खिंची हुई है लकीर
किताब-ए-ज़ीस्त है सादा इस इंदिराज के ब'अद
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दरकार तहफ़्फ़ुज़ है प साँस भी लेना है
दीवार बनाओ तो दीवार में दर रखना
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याद है 'आनिस' पहले तुम ख़ुद बिखरे थे
आईने ने तुम से बिखरना सीखा था
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अंजाम को पहुँचूँगा मैं अंजाम से पहले
ख़ुद मेरी कहानी भी सुनाएगा कोई और
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क्यूँ खुल गए लोगों पे मिरी ज़ात के असरार
ऐ काश कि होती मिरी गहराई ज़रा और
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अजब अंदाज़ से ये घर गिरा है
मिरा मलबा मिरे ऊपर गिरा है
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न जाने बाहर भी कितने आसेब मुंतज़िर हों
अभी मैं अंदर के आदमी से डरा हुआ हूँ
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था इंतिज़ार मनाएँगे मिल के दीवाली
न तुम ही लौट के आए न वक़्त-ए-शाम हुआ
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न थी ज़मीन में वुसअत मिरी नज़र जैसी
बदन थका भी नहीं और सफ़र तमाम हुआ
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हैरत से जो यूँ मेरी तरफ़ देख रहे हो
लगता है कभी तुम ने समुंदर नहीं देखा
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ये और बात कि रंग-ए-बहार कम होगा
नई रुतों में दरख़्तों का बार कम होगा
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हमारी मुस्कुराहट पर न जाना
दिया तो क़ब्र पर भी जल रहा है
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बिखर के फूल फ़ज़ाओं में बास छोड़ गया
तमाम रंग यहीं आस-पास छोड़ गया
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कब बार-ए-तबस्सुम मिरे होंटों से उठेगा
ये बोझ भी लगता है उठाएगा कोई और
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वो जो प्यासा लगता था सैलाब-ज़दा था
पानी पानी कहते कहते डूब गया है
मैं अपनी ज़ात की तन्हाई में मुक़य्यद था
फिर इस चटान में इक फूल ने शिगाफ़ किया
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ये इंतिज़ार सहर का था या तुम्हारा था
दिया जलाया भी मैं ने दिया बुझाया भी
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आज ज़रा सी देर को अपने अंदर झाँक कर देखा था
आज मिरा और इक वहशी का साथ रहा पल दो पल का
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मेरे अपने अंदर एक भँवर था जिस में
मेरा सब कुछ साथ ही मेरे डूब गया है
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गया था माँगने ख़ुशबू मैं फूल से लेकिन
फटे लिबास में वो भी गदा लगा मुझ को
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हज़ारों क़ुमक़ुमों से जगमगाता है ये घर लेकिन
जो मन में झाँक के देखूँ तो अब भी रौशनी कम है
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गहरी सोचें लम्बे दिन और छोटी रातें
वक़्त से पहले धूप सरों पे आ पहुँची
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मुमकिन है कि सदियों भी नज़र आए न सूरज
इस बार अंधेरा मिरे अंदर से उठा है
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इक डूबती धड़कन की सदा लोग न सुन लें
कुछ देर को बजने दो ये शहनाई ज़रा और
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बदन की अंधी गली तो जा-ए-अमान ठहरी
मैं अपने अंदर की रौशनी से डरा हुआ हूँ
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आख़िर को रूह तोड़ ही देगी हिसार-ए-जिस्म
कब तक असीर ख़ुशबू रहेगी गुलाब में
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