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शकील जमाली

1958 | दिल्ली, भारत

संजीदा सोच के लोकप्रिय शायर।

संजीदा सोच के लोकप्रिय शायर।

शकील जमाली के शेर

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रिश्तों की दलदल से कैसे निकलेंगे

हर साज़िश के पीछे अपने निकलेंगे

ग़म के पीछे मारे मारे फिरना क्या

ये दौलत तो घर बैठे जाती है

सब से पहले दिल के ख़ाली-पन को भरना

पैसा सारी उम्र कमाया जा सकता है

इक बीमार वसिय्यत करने वाला है

रिश्ते-नाते जीभ निकाले बैठे हैं

हो गई है मिरी उजड़ी हुई दुनिया आबाद

मैं उसे ढूँढ रहा हूँ ये बताने के लिए

ज़िंदगी ऐसे भी हालात बना देती है

लोग साँसों का कफ़न ओढ़ के मर जाते हैं

कोई स्कूल की घंटी बजा दे

ये बच्चा मुस्कुराना चाहता है

उम्र का एक और साल गया

वक़्त फिर हम पे ख़ाक डाल गया

सफ़र से लौट जाना चाहता है

परिंदा आशियाना चाहता है

हर कोने से तेरी ख़ुशबू आएगी

हर संदूक़ में तेरे कपड़े निकलेंगे

लोग कहते हैं कि इस खेल में सर जाते हैं

इश्क़ में इतना ख़सारा है तो घर जाते हैं

सियासत के चेहरे पे रौनक़ नहीं

ये औरत हमेशा की बीमार है

शदीद गर्मी में कैसे निकले वो फूल-चेहरा

सो अपने रस्ते में धूप दीवार हो रही है

मैं ने हाथों से बुझाई है दहकती हुई आग

अपने बच्चे के खिलौने को बचाने के लिए

झूट में शक की कम गुंजाइश हो सकती है

सच को जब चाहो झुठलाया जा सकता है

तुम्हारे बा'द बड़ा फ़र्क़ गया हम में

तुम्हारे बा'द किसी पे ख़फ़ा नहीं हुए हम

अभी रौशन हुआ जाता है रस्ता

वो देखो एक औरत रही है

मौत को हम ने कभी कुछ नहीं समझा मगर आज

अपने बच्चों की तरफ़ देख के डर जाते हैं

किन ज़मीनों पे उतारोगे इमदाद का क़हर

कौन सा शहर उजाड़ोगे बसाने के लिए

अपने ख़ून से इतनी तो उम्मीदें हैं

अपने बच्चे भीड़ से आगे निकलेंगे

कुछ लोग हैं जो झेल रहे हैं मुसीबतें

कुछ लोग हैं जो वक़्त से पहले बदल गए

अगर हमारे ही दिल में ठिकाना चाहिए था

तो फिर तुझे ज़रा पहले बताना चाहिए था

मसअला ख़त्म हुआ चाहता है

दिल बस अब ज़ख़्म नया चाहता है

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