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ग़ज़ल
कोई मौक़ा ज़िंदगी का आख़िरी मौक़ा नहीं
इस क़दर ताजील क्यों रफ़-ए-कुदूरत के लिए
हफ़ीज़ होशियारपुरी
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ग़ज़ल
मगर लिखवाए कोई उस को ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुब्ह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
अब न है फ़िक्र-ए-हिफ़ाज़त और न ज़ीक़-ए-रफ़-ए-कार
देने वाले ने दिया और मेरी ख़्वाहिश भर दिया