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ग़ज़ल
अज़ल हो या अबद दोनों असीर-ए-ज़ुल्फ़-ए-हज़रत हैं
जिधर नज़रें उठाओगे यही इक सिलसिला होगा
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
क़द्र जानोगे मोहब्बत की तब ऐ जान-ए-जहाँ
तुम भी जब रंज उठाओगे मिरे दिल की तरह
मुंशी शिव परशाद वहबी
ग़ज़ल
उठाओगे न कुछ लुत्फ़-ए-बहाराँ हम न कहते थे
करोगे तुम भी इक दिन चाक दामाँ हम न कहते थे