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नज़्म
गुल हुई जाती है अफ़्सुर्दा सुलगती हुई शाम
धुल के निकलेगी अभी चश्मा-ए-महताब से रात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
अरमानों का क़ातिल है उम्मीदों का रहज़न है
जज़्बात का मक़्तल है जज़्बात का मदफ़न है
अख़्तर शीरानी
नज़्म
मक़्तल में कुछ तो रंग जमे जश्न-ए-रक़्स का
रंगीं लहू से पंजा-ए-सय्याद कुछ तो हो
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
कोई बिस्मिल बनाता है जो मक़्तल में हमें 'बिस्मिल'
तो हम डर कर दबी आवाज़ से फ़रियाद करते हैं
राम प्रशाद बिस्मिल
नज़्म
सर-ए-मक़्तल चलो बे-ज़हमत-ए-तक़सीर बिस्मिल्लाह
हुई फिर इमतिहान-ए-इशक़ की तदबीर बिस्मिल्लाह