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नज़्म
अव्वलीं ज़ाइक़ा-ए-ख़ूँ से थी लब-तल्ख़ वो ख़ाक
जिस पे मैं टूटी हुई शाख़ के मानिंद गिरा
ज़िया जालंधरी
नज़्म
क़ल्ब ओ नज़र की ज़िंदगी दश्त में सुब्ह का समाँ
चश्मा-ए-आफ़्ताब से नूर की नद्दियाँ रवाँ!