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नज़्म
क्यूँ ज़ियाँ-कार बनूँ सूद-फ़रामोश रहूँ
फ़िक्र-ए-फ़र्दा न करूँ महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
जब चाँदनी खुलती है हर-सू हर ज़र्रा ताबाँ होता है
जब छूट से माह-ओ-अंजुम की दरिया में चराग़ाँ होता है