बिजली पहलवान
स्टोरीलाइन
अमृतसर के अपने समय के एक नामी पहलवान की कहानी है। बिजली पहलवान की शोहरत सारे शहर में थी। हालाँकि देखने में वह मोटा और थुलथुल व्यक्ति था जो हर तरह के दो नंबरी काम किया करता था। फिर भी पुलिस उसे पकड़ नहीं पाती थी। एक बार उसे सोलह-सत्रह साल की एक लड़की से मोहब्बत हो गई और उसने उससे शादी कर ली। शादी के छह महीने बीत जाने के बाद भी पहलवान ने उसे हाथ तक नहीं लगाया। एक दिन जब वह अपनी पत्नी के लिए तोहफ़े लेकर घर पहुँचा तो उसकी नई-नवेली पत्नी उसके बड़े बेटे के साथ एक कमरे में बंद खिलखिला रही थी। इससे क्रोधित हो कर बिजली पहलवान ने उसे हमेशा के लिए अपने बेटे के हवाले कर दिया।
बिजली पहलवान के मुतअ’ल्लिक़ बहुत से क़िस्से मशहूर हैं। कहते हैं कि वो बर्क़-रफ़्तार था। बिजली की मानिंद अपने दुश्मनों पर गिरता था और उन्हें भस्म कर देता था, लेकिन जब मैंने उसे मुग़ल बाज़ार में देखा तो वो मुझे बेज़रर कद्दू के मानिंद नज़र आया। बड़ा फुसफुस सा, तोंद बाहर निकली हुई, बंद बंद ढीले, गाल लटके हुए, अलबत्ता उसका रंग सुर्ख़-ओ-सफ़ेद था।
वो मुग़ल बाज़ार में एक बज़्ज़ाज़ की दुकान पर आलती पालती मारे बैठा था। मैंने उसको ग़ौर से देखा, मुझे उसमें कोई गुंडापन नज़र न आया, हालाँकि उसके मुतअ’ल्लिक़ मशहूर यही था कि हिंदुओं का वो सबसे बड़ा गुंडा है।
वो गुंडा हो ही नहीं सकता था, इसलिए कि उसके ख़द्द-ओ-ख़ाल उसकी नफ़ी करते थे। मैं थोड़ी देर सामने वाली किताबों की दुकान के पास खड़ा उसको देखता रहा। इतने में एक मुसलमान औरत जो बड़ी मुफ़लिस दिखाई देती थी, बज़्ज़ाज़ की दुकान के पास पहुंची। बिजली पहलवान से उसने कहा, “मुझे बिजली पहलवान से मिलना है”
बिजली पहलवान ने हाथ जोड़ कर उसे परनाम किया, “माता, मैं ही बिजली पहलवान हूँ।”
उस औरत ने उसको सलाम किया, “ख़ुदा तुम्हें सलामत रखे... मैंने सुना है कि तुम बड़े दयालू हो।”
बिजली ने बड़ी इन्किसारी से कहा, “माता, दयालू परमेश्वर है... मैं क्या दया कर सकता हूँ लेकिन मुझे बताओ कि मैं क्या सेवा कर सकता हूँ?”
“बेटा, मुझे अपनी जवान लड़की का ब्याह करना है... तुम अगर मेरी कुछ मदद कर सको तो मैं सारी उम्र तुम्हें दुआएं दूंगी।”
बिजली ने उस औरत से पूछा, “कितने रूपों में काम चल जाएगा?”
औरत ने जवाब दिया, “बेटा! तुम ख़ुद ही समझ लो, मैं तो एक भिकारन बन कर तुम्हारे पास आई हूँ।”
बिजली ने कहा, “भिकारन मुँह से न कहो... मेरा फ़र्ज़ है कि मैं तुम्हारी मदद करूं।” इसके बाद उस ने बज़्ज़ाज़ से जो थान तह कर रहा था कहा, “लाला जी, दो हज़ार रुपये निकालिये।”
लाला जी ने दो हज़ार रूपे फ़ौरन अपनी संदूकची से निकाले और गिन कर बिजली पहलवान को दे दिए। ये रुपये उसने उस औरत को पेश कर दिए। “माता, भगवान करे कि तुम्हारी बेटी के भाग अच्छे हों।”
वो औरत चंद लम्हात के लिए नोट हाथ में लिये बुत बनी खड़ी रही। ग़ालिबन उसको इतने रुपये एक दम मिल जाने की तवक़्क़ो ही नहीं थी।
जब वो सँभली तो उसने बिजली पहलवान पर दुआओं की बोछाड़ कर दी, मैंने देखा कि पहलवान बड़ी उलझन महसूस कर रहा था। आख़िर उसने उस औरत से कहा, “माता मुझे शर्मिंदा न करो, जाओ अपनी बेटी के दान, दहेज़ का इंतिज़ाम करो, उसको मेरी अशीरबाद देना।”
मैं सोच रहा था कि ये किस क़िस्म का गुंडा और बदमाश है जो दो हज़ार रुपये एक ऐसी औरत को जो मुसलमान है और जिसे वो जानता भी नहीं, दो हज़ार रुपये पकड़ा देता है, लेकिन बाद में मुझे मालूम हुआ कि वो बड़ा मुखैयर है हर महीने हज़ारों रुपये दान के तौर पर देता है।
मुझे चूँकि उसकी शख़्सियत से दिलचस्पी पैदा हो गई थी इसलिए मैंने काफ़ी छानबीन के बाद बिजली पहलवान के मुतअ’ल्लिक़ कई मालूमात हासिल कीं।
मुग़ल बाज़ार की अक्सर दुकानें उसकी थीं। हलवाई की दुकान है, बज़्ज़ाज़ की दुकान है, शर्बत बेचने वाला है, शीशे फ़रोख़्त करने वाला है, पंसारी है। ग़रज़ कि इस सिरे से उस सिरे तक जहां वो बज़्ज़ाज़ की दुकान में बैठा था उसने एक लाईन आफ़ कम्युनिकेशन क़ायम कर रखी थी ताकि अगर पुलिस छापा मारने की ग़रज़ से आए तो उसे फ़ौरन इत्तिला मिल जाये।
दरअसल उसकी दो बैठकों में जो बज़्ज़ाज़ की दुकान के बिल्कुल सामने थीं, बहुत भारी जुवा होता था। हर रोज़ हज़ारों रुपये नाल की सूरत में उसे वसूल हो जाते थे।
वो ख़ुद जुवा नहीं खेलता था न शराब पीता था मगर उसकी बैठकों में शराब हर वक़्त मिल सकती थी, इससे भी उसकी आमदनी काफ़ी थी।
शहर के जितने बड़े बड़े गुंडे थे उनको इसने हफ़्ता मुक़र्रर कर रखा था या’नी हफ़्तावार उन्हें उनके मरतबे के मुताबिक़ तनख़्वाह मिल जाती थी। मेरा ख़याल है उसने ये सिलसिला बतौर हिफ़्ज़ मा-तक़द्दुम शुरू किया था कि वो गुंडे बड़ी ख़तरनाक क़िस्म के थे।
जहां तक मुझे याद है कि ये गुंडे सब के सब मुसलमान थे, ज़्यादा तर हाथी दरवाज़े के। हर हफ़्ते बिजली पहलवान के पास जाते और अपनी तनख़्वाह वसूल कर लेते, वो उनको कभी नाउम्मीद न लौटाता, इसलिए कि उसके पास रुपया आम था।
मैंने सुना कि एक दिन वो बज़्ज़ाज़ की दुकान पर हस्ब-ए-मा’मूल बैठा था कि एक हिंदू बनिया जो काफ़ी मालदार था उसकी ख़िदमत में हाज़िर हुआ और अर्ज़ की, “पहलवान जी! मेरा लड़का ख़राब हो गया है... उसको ठीक कर दीजिए।”
पहलवान ने मुस्कुरा कर उससे कहा, “मेरे दो लड़के हैं... बहुत शरीफ़। लोग मुझे गुंडा और बदमाश कहते हैं लेकिन मैंने उन्हें इस तरह पाला पोसा है कि वो कोई बुरी हरकत कर ही नहीं सकते। महाशा जी, ये आपका क़ुसूर है आपके बड़े लड़के का नहीं।”
बनिए ने हाथ जोड़ कर कहा, “पहलवान जी, मैंने भी उसको अच्छी तरह पाला-पोसा है पर उसने अब चोरी चोरी बहुत बुरे काम शुरू कर दिए हैं।”
बिजली ने अपना फ़ैसला सुना दिया, “उसकी शादी कर दो।”
इस वाक़ये को दस रोज़ गुज़रे थे कि बिजली पहलवान एक नौजवान लड़की की मुहब्बत में गिरफ़्तार हो गया, हालाँकि उससे इस क़िस्म की कोई तवक़्क़ो नहीं हो सकती थी।
लड़की की उम्र सोलह-सत्रह बरस के लगभग होगी और बिजली पच्चास से ऊपर होगा। आदमी बा-असर और मालदार था। लड़की के वालिदैन राज़ी हो गए चुनांचे शादी हो गई।
उसने शहर के बाहर एक आ’लीशान कोठी बनाई थी। दुल्हन को वो जब उसमें लेकर गया तो उसे महसूस हुआ कि तमाम झालर और फ़ानुस मांद पड़ गए हैं।
लड़की बहुत ख़ूबसूरत थी पहली रात बिजली पहलवान ने कसरत करना चाही मगर न कर सका, इस लिए कि उसके दिमाग़ में अपनी पहली बीवी का ख़याल करवटें ले रहा था। उसके दो जवान लड़के थे जो उसी कोठी के एक कमरे में सो रहे थे या जाग रहे थे।
उसने अपनी पहली बीवी को कहीं बाहर भेज दिया था। उसको इस का क़तअ’न इल्म नहीं था कि उस के पति ने दूसरी शादी कर ली है। बिजली पहलवान सोचता था कि उसे और कुछ नहीं तो अपनी पहली इस्त्री को मुत्तला ज़रूर कर देना चाहिए था।
सारी रात नई नवेली दुल्हन जिसकी उम्र सोलह-सत्रह बरस के क़रीब थी, चौड़े चकले पलंग पर बैठी बिजली पहलवान की ऊटपटांग बातें सुनती रही। उसकी समझ में नहीं आता था कि ये शादी क्या है, क्या उसे हर रोज़ इसी क़िस्म की बातें सुनना होंगी।
“कल मैं तुम्हरे लिए दस हज़ार के ज़ेवर और लाऊँगा।”
“तुम बड़ी सुंदर हो।”
“बर्फ़ी खाओगी या पेड़े?”
“ये सारा शहर समझो कि तुम्हारा है।”
“ये कोठी मैं तुम्हारे नाम लिख दूँगा।”
“कितने नौकर चाहिऐं तुम्हें, मुझे बता दो, एक मिनट में इंतिज़ाम हो जाएगा।”
“मेरे दो जवान लड़के हैं बहुत शरीफ़... तुम उनसे जो काम लेना चाहो ले सकती हो, वो तुम्हारा हुक्म मानेंगे।”
दुल्हन हर रोज़ इसी क़िस्म की बातें सुनती रही, हत्ता कि छः महीने गुज़र गए। बिजली पहलवान दिन ब-दिन उसकी मुहब्बत में ग़र्क़ होता गया। वो उसके तीखे तीखे नक़्श देखता तो अपनी सारी पहलवानी भूल जाता।
उसकी पहली बीवी बदशकल थी। इन मा’नों में कि उसमें कोई कशिश नहीं थी, वो एक आम खत्रानी थी जो एक बच्चा जनने के बाद ही बूढ़ी हो जाती है लेकिन उसकी ये दूसरी बीवी बड़ी ठोस थी। दस बच्चे पैदा करने के बाद भी वो साबित-ओ-सालिम रह सकती थी।
बिजली पहलवान का एक वैद दोस्त था। उसके पास वो कई दिनों से जा रहा था, उसने बिजली को यक़ीन दिलाया कि अब किसी क़िस्म के तरद्दुद की ज़रूरत नहीं सब ठीक हो जाएगा।
पहलवान ख़ुश था। वैद के हाँ से आते हुए उसने कई स्कीमें तैयार कीं, रास्ते में मिठाई ख़रीदी, सोने के दो बड़े बड़े ख़ुशनुमा कड़े लिए, बारह क़मीसों और बारह शलवारों के लिए बेहतरीन कपड़ा, क़ीमत अदा किए बग़ैर हासिल किया। इसलिए कि वो लोग जो दुकान के मालिक थे उससे मरऊब थे और क़ीमत लेने से इंकारी थे।
शाम को सात बजे वो घर पहुंचा। आहिस्ता आहिस्ता क़दम उठाते हुए अपने कमरे में गया, देखा तो वहां उसकी दूसरी बीवी नहीं थी, उसने सोचा शायद ग़ुस्लख़ाने में होगी, चुनांचे उसने अपना बोझ मेरा मतलब है वो थान वग़ैरा पलंग पर रख कर ग़ुस्लख़ाने का रुख़ किया मगर वो ख़ाली था।
बिजली पहलवान बड़ा मुतहय्यर हुआ कि उसकी बीवी कहाँ गई? तरह तरह के ख़यालात उसके दिमाग़ में आए मगर वो कोई नतीजा बरामद न कर सका, उसने वैद की दी हुई गोलियां खाईं और पलंग पर बैठ गया कि उसकी बीवी आ जाएगी, आख़िर उसे जाना कहाँ है?
वो गोलियां खा कर पलंग पर बैठा क़मीसों के कपड़ों को उंगलियों में मसल मसल कर देख रहा था कि उसे अपनी बीवी की हंसी की आवाज़ सुनाई दी। वो चौंका, उठ कर उस कमरे में गया जो उसने अपने बड़े लड़के को दे रखा था, अंदर से उसकी बीवी और उसके बेटे की हंसी की आवाज़ निकल रही थी। उसने दस्तक दी... लेकिन दरवाज़ा न खुला, फिर बड़े ज़ोर से चिल्लाना शुरू किया कि दरवाज़ा खोलो। उस वक़्त उसका ख़ून खौल रहा था।
दरवाज़ा फिर भी न खुला। उसे ऐसा महसूस हुआ कि उस कमरे के अंदर उसकी बीवी और उसके बड़े लड़के ने सांस लेना भी बंद कर दिया है।
बिजली पहलवान ने बड़े कमरे में जाकर गुरमुखी ज़ुबान में एक रुक्क़ा लिखा जिसकी इबारत उर्दू में कुछ यूं हो सकती है;
“ये कोठी अब तुम्हारी है... मेरी बीवी भी अब तुम्हारी बीवी है ख़ुश रहो। तुम्हारे लिए कुछ तोहफ़े लाया था। वो यहां छोड़े जा रहा हूँ।”
ये रुक्क़ा लिख उसने साटन के थान के साथ टाँक दिया।
- पुस्तक : منٹو نقوش
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