Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

महालक्ष्मी का पुल

कृष्ण चंदर

महालक्ष्मी का पुल

कृष्ण चंदर

MORE BYकृष्ण चंदर

    स्टोरीलाइन

    ‘महालक्ष्मी का पुल’ दो समाजों के बीच की कहानी है। महालक्ष्मी के पुल दोनों ओर सूख रही साड़ियों की मारिफ़त शहरी ग़रीब महिलाओं और पुरुषों के कठिन जीवन को उधेड़ा गया है, जो उनकी साड़ियों की तरह ही तार-तार है। वहाँ बसने वाले लोगों को उम्मीद है कि आज़ादी के बाद आई जवाहर लाल नेहरू की सरकार उनका कुछ भला करेगी, लेकिन नेहरु का क़ाफ़िला वहाँ बिना रुके ही गुज़र जाता है। जो दर्शाता है कि न तो पुरानी शासन व्यवस्था में इनके लिए कोई जगह थी न ही नई शासन व्यवस्था में इनके लिए कोई जगह है।

    महालक्ष्मी के स्टेशन के उस पार लक्ष्मी जी का एक मंदिर है। उसे लोग रेस कोर्स भी कहते हैं। उस मंदिर में पूजा करने वाले हारते ज़ियादा हैं जीतते बहुत कम हैं। महालक्ष्मी स्टेशन के उस पार एक बहुत बड़ी बद-रौ है जो इंसानी जिस्मों की ग़लाज़त को अपने मुतअफ़्फ़िन पानियों में घोलती हुई शह्‌र से बाहर चली जाती है।

    मंदिर में इंसान के दिल की ग़लाज़त धुलती है और उस बद-रौ में इंसान के जिस्म की ग़लाज़त और इन दोनों के बीच में महालक्ष्मी का पुल है। महालक्ष्मी के पुल के ऊपर बाईं तरफ़ लोहे के जंगले पर छः साड़ियाँ लहरा रही हैं। पुल ​के इस तरफ़ हमेशा उस मक़ाम पर चन्द साड़ियाँ लहराती रहती हैं। ये साड़ियाँ कोई बहुत क़ीमती नहीं हैं। उनके पहनने वाले भी कोई बहुत ज़ियादा क़ीमती नहीं हैं। ये लोग हर रोज़ उन साड़ियों को धो कर सूखने के लिए डाल देते हैं और रेलवे लाईन के आर पार जाते हुए लोग, महालक्ष्मी स्टेशन पर गाड़ी का इन्तिज़ार करते हुए लोग, गाड़ी की खिड़की और दरवाज़ों से झांक कर बाहर देखने वाले लोग अक्सर उन साड़ियों को हवा में झूलता हुआ देखते हैं।

    वो उनके मुख़्तलिफ़ रंग देखते हैं। भूरा, गहरा भूरा, मटमैला नीला, किरमिज़ी भूरा, गन्दा सुर्ख़ किनारा गहरा नीला और लाल, वो लोग अक्सर उन्ही रंगों को फ़िज़ा में फैले हुए देखते हैं। एक लम्हे के लिए। दूसरे लम्हे में गाड़ी पुल के नीचे से गुज़र जाती है।

    उन साड़ियों के रंग अब जाज़िब-ए-नज़र नहीं रहे। किसी ज़माने में मुमकिन है जब ये नई ख़रीदी गई हों, उनके रंग ख़ूबसूरत और चमकते हुए हों, मगर अब नहीं हैं। मुतवातिर धोए जाने से उनके रंगों की आब-ओ-ताब मर चुकी है और अब ये साड़ियाँ अपने फीके सीठे रोज़मर्रा के अन्दाज़ को लिए बड़ी बे-दिली से जंगले पर पड़ी नज़र आती हैं।

    आप दिन में उन्हें सौ बार देखें। ये आप को कभी ख़ूबसूरत दिखाई देंगी। उनका रंग रूप अच्छा है उनका कपड़ा। ये बड़ी सस्ती, घटिया क़िस्म की साड़ियाँ हैं। हर रोज़ धुलने से उनका कपड़ा भी तार-तार हो रहा है। उन में कहीं कहीं रौज़न भी नज़र आते हैं। कहीं उधड़े हुए टाँके हैं। कहीं बदनुमा दाग़ जो इस क़दर पायदार हैं कि धोए जाने से भी नहीं धुलते बल्कि और गहरे होते जाते हैं।

    मैं इन साड़ियों की ज़िन्दगी को जानता हूँ क्योंकि मैं उन लोगों को जानता हूँ जो उन साड़ियों को इस्तेमाल करते हैं। ये लोग महालक्ष्मी के पुल के क़रीब ही बाईं तरफ़ आठ नम्बर की चाल में रहते हैं। ये चाल मतवाली नहीं है बड़ी ग़रीब की चाल है। मैं भी इसी चाल में रहता हूँ, इसलिए आपको इन साड़ियों और उनके पहनने वालों के मुतअल्लिक़ सब कुछ बता सकता हूँ।

    अभी वज़ीर-ए-आज़म की गाड़ी आने में बहुत देर है। आप इन्तिज़ार करते-करते उकता जाएँगे इसलिए अगर आप इन छः साड़ियों की ज़िन्दगी के बारे में मुझ से कुछ सुन लें तो वक़्त आसानी से कट जाएगा। उधर ये जो भूरे रंग की साड़ी लटक रही है ये शांता बाई की साड़ी है। इसके क़रीब जो साड़ी लटक रही है वो भी आप को भूरे रंग की साड़ी दिखाई देती होगी मगर वो तो गहरे भूरे रंग की है। आप नहीं मैं इसका गहरा भूरा रंग देख सकता हूँ क्योंकि मैं इसे उस वक़्त से जानता हूँ जब उसका रंग चमकता हुआ गहरा भूरा था और अब इस दूसरी साड़ी का रंग भी वैसा ही भूरा है जैसा शांता बाई की साड़ी का और शायद आप इन दोनों साड़ियों में बड़ी मुश्किल से कोई फ़र्क़ महसूस कर सकें। मैं भी जब उनके पहनने वालों की ज़िन्दगियों को देखता हूँ तो बहुत कम फ़र्क़ महसूस करता हूँ मगर ये पहली साड़ी जो भूरे रंग की है वो शांता बाई की साड़ी है और जो दूसरी भूरे रंग की है और जिस का गहरा रंग भूरा सिर्फ़ मेरी आँखें देख सकती हैं। वो जीवना बाई की साड़ी है।

    शांता बाई की ज़िन्दगी भी उसकी साड़ी के रंग की तरह भूरी है। शांता बाई बर्तन माँझने का काम करती है। उसके तीन बच्चे हैं। एक बड़ी लड़की है दो छोटे लड़के हैं। बड़ी लड़की की उम्र छः साल होगी। सब से छोटा लड़का दो साल का है। शांता बाई का ख़ाविन्द सेवन मिल के कपड़े खाते में काम करता है। उसे बहुत जल्द जाना होता है। इसलिए शांता बाई अपने ख़ाविन्द के लिए दूसरे दिन की दोपहर का खाना रात ही को पका के रखती है, क्योंकि सुब्ह उसे ख़ुद बर्तन साफ़ करने के लिए और पानी ढोने के लिए दूसरों के घरों में जाना होता है और अब वो साथ में अपने छः बरस की बच्ची को भी ले जाती है और दोपहर के क़रीब वापस चाल में आती है।

    वापस के वो नहाती है और अपनी साड़ी धोती है और सुखाने के लिए पुल के जंगले पर डाल देती है और फिर एक बेहद ग़लीज़ और पुरानी धोती पहन कर खाने पकाने में लग जाती है।

    शांता बाई के घर चूल्हा उस वक़्त सुलग सकता है जब दूसरों के हाँ चूल्हे ठण्डे हो जाएँ। यानी दोपहर को दो बजे और रात के नौ बजे। इन औक़ात में इधर और उधर से दोनों वक़्त घर से बाहर बर्तन माँझने और पानी ढोने का काम करना होता है। अब तो छोटी लड़की भी उसका हाथ बटाती है। शांता बाई बर्तन साफ़ करती है। छोटी लड़की बर्तन धोती जाती है। दो तीन बार ऐसा हुआ कि छोटी लड़की के हाथ से चीनी के बर्तन गिर कर टूट गए।

    अब मैं जब कभी छोटी लड़की की आँखें सूजी हुई और उसके गाल सुर्ख़ देखता हूँ तो समझ जाता हूँ कि किसी बड़े घर में चीनी के बर्तन टूटे हैं और उस वक़्त शांता भी मेरी नमस्ते का जवाब नहीं देती। जलती भुन्ती बड़बड़ाती चूल्हा सुलगाने में मसरूफ़ हो जाती है और चूल्हे में आग कम और धुआँ ज़ियादा निकालने में कामयाब हो जाती है। छोटा लड़का जो दो साल का है धुएँ से अपना दम घुटता देख कर चीख़ता है तो शांता बाई उसके चीनी ऐसे नाज़ुक रुख़्सारों पर ज़ोर-ज़ोर की चपतें लगाने से बाज़ नहीं आती उस पर बच्चा और ज़ियादा चीख़ता है।

    यूँ तो ये दिन भर रोता रहता है क्योंकि उसे दूध नहीं मिलता है और उसे अक्सर भूक रहती है और दो साल की उम्र ही में उसे बाजरे की रोटी खाना पड़ती है। उसे अपनी माँ का दूध दूसरे भाई बहन की तरह सिर्फ़ पहले छः सात माह नसीब हुआ, वो भी बड़ी मुश्किल से। फिर ये भी ख़ुश्क बाजरी और ठण्डे पानी पर पलने लगा। हमारी चाल के सारे बच्चे इसी ख़ुराक पर पलते हैं। वो दिन भर नंगे रहते हैं और रात को गुदड़ी ओढ़ कर सो जाते हैं। सोते में भी वो भूके रहते हैं और जागते में भी भूके रहते हैं और जब शांता बाई के ख़ाविन्द की तरह बड़े हो जाते हैं तो फिर दिन भर बाजरी और ठण्डे पानी पी-पी कर काम करते जाते हैं और उनकी भूक बढ़ती जाती है और हर वक़्त मेदे के अन्दर और दिल के अन्दर और दिमाग़ के अन्दर एक बोझल सी धमक महसूस करते हैं और जब पगार मिलती है तो इनमें से कई एक सीधे ताड़ी ख़ाने का रुख़ करते हैं। ताड़ी पी कर चन्द घंटों के लिए ये धमक ज़ाइल हो जाती है।

    लेकिन आदमी हमेशा तो ताड़ी नहीं पी सकता। एक दिन पिएगा, दो दिन पिएगा, तीसरे दिन की ताड़ी के पैसे कहाँ से लाएगा। आख़िर खोली का किराया देना है। राशन का ख़र्चा है। भाजी तरकारी है। तेल और नमक है। बिजली और पानी है।

    शांता बाई की भूरी साड़ी है जो छटे सातवें माह तार-तार हो जाती है। कभी सात माह से ज़ियादा नहीं चलती। ये मिल वाले भी पाँच रुपए चार आने में कैसी खुदरी निकम्मी साड़ी देते हैं। उनके कपड़े में ज़रा जान नहीं होती। छटे माह से जो तार-तार होना शुरू होता है तो सातवें माह बड़ी मुश्किल से सी के, जोड़ के, गाँठ के, टाँके लगा के काम देता है और फिर वही पाँच रुपए चार आने ख़र्च करना पड़ते हैं और वही भूरे रंग की साड़ी जाती है।

    शांता को ये रंग बहुत पसन्द है इसलिए कि ये मैला बहुत देर में होता है। उसे घरों में झाड़ू देना होती है। बर्तन साफ़ करने होते हैं, तीसरी चौथी मंज़िल तक पानी ढ़ोने होता है। वो भूरा रंग पसन्द नहीं करेगी तो क्या खिलते हुए शोख़ रंग गुलाबी, बसन्ती, नारंजी पसन्द करेगी। वो इतनी बेवक़ूफ़ नहीं है।

    वो तीन बच्चों की माँ है लेकिन कभी उसने ये शोख़ रंग भी देखे थे, पहने थे। उन्हें अपने धड़कते हुए दिल के साथ प्यार किया था। जब वो धारवार में अपने गाँव में थी जहाँ उसने बादलों में शोख़ रंगों वाली धनक देखी थी, जहाँ मेलों में उसने शोख़ रंग नाचते हुए देखे थे, जहाँ उसके बाप के धान के खेत थे, ऐसे शोख़ हरे हरे रंग के खेत और आंगन में पेरू का पेड़ जिसके डाल-डाल से वो पेरू तोड़ तोड़ कर खाया करती थी। जाने अब पेरूओं में वो मज़ा ही नहीं है, वो शीरीनी और घुलावट ही नहीं है। वो रंग वो चमक दमक कहाँ जा के मर गई और वो सारे रंग क्यों यक-लख़्त भूरे हो गए। शांता बाई कभी बर्तन मांझते-मांझते खाना पकाते, अपनी साड़ी धोते, उसे पुल के जंगले पर ला कर डालते हुए ये सोचा करती है और उसकी भूरी साड़ी से पानी के क़तरे आँसुओं की तरह रेल की पटरी पर बहते जाते हैं और दूर से देखने वाले लोग एक भूरे रंग की बदसूरत औरत को पुल के ऊपर जंगले पर एक भूरी साड़ी को फैलाते देखते हैं और बस दूसरे लम्हे गाड़ी पुल के नीचे से गुज़र जाती है।

    जीवना बाई की साड़ी जो शांता बाई की साड़ी के साथ लटक रही है, गहरे भूरे रंग की है। ब-ज़ाहिर उसका रंग शांता बाई की साड़ी से भी फीका नज़र आएगा लेकिन अगर आप ग़ौर से देखें तो उस फीके पन के बावुजूद ये आप को गहरे भूरे रंग की नज़र आएगी। ये साड़ी भी पाँच रुपए चार आने की है और बड़ी ही बोसीदा है।

    दो एक जगह से फटी हुई थी लेकिन अब वहाँ पर टाँके लग गए हैं और इतनी दूर से मालूम भी नहीं होते। हाँ आप वो बड़ा टुकड़ा ज़रूर देख सकते हैं जो गहरे नीले रंग का है और उस साड़ी के बीच में जहाँ से ये साड़ी बहुत फट चुकी थी लगाया गया है। ये टुकड़ा जीवना बाई की इससे पहली साड़ी का है और दूसरी साड़ी को मज़बूत बनाने के लिए इस्तेमाल किया गया है।

    जीवना बाई बेवा है और इसलिए वो हमेशा पुरानी चीज़ों से नई चीज़ों को मज़बूत बनाने के ढंग सोचा करती है। पुरानी यादों से नई यादों की तल्ख़ियों को भूल जाने की कोशिश करती है। जीवना बाई अपने ख़ाविन्द के लिए रोती रहती है, जिसने एक दिन उसे नशे में मार-मार कर उसकी आँख कानी कर दी थी। वो इसलिए नशे में था कि वो उस रोज़ मिल से निकाला गया था।

    बुढ्ढा ढोंडू अब मिल में किसी काम का नहीं रहा था। गो वो बहुत तजुर्बेकार था लेकिन उसके हाथों में इतनी ताक़त रही थी कि वो जवान मज़दूरों का मुक़ाबला कर सकता बल्कि वो तो अब दिन रात खाँसी में मुब्तला रहने लगा था। कपास के नन्हे-नन्हे रेशे उसके फेफड़ों में जा के ऐसे धँस गए थे जैसे चर्ख़ियों और ईंटों में सूत के छोटे-छोटे महीन तागे फँस कर लग जाते हैं। जब बरसात आती तो ये नन्हे मुंन्ने रेशे उसे दमे में मुब्तला कर देते और जब बरसात होती तो वो दिन भर और रात भर खाँसता।

    एक ख़ुश्क मुसलसल खँकार घर में और कारख़ाने में जहाँ वो काम करता था... सुनाई देती रहती थी। मिल के मालिक ने उस खाँसी की ख़तरनाक घण्टी को सुना और ढोंढू को मिल से निकाल दिया। ढोंडू उसके छः माह बाद मर गया। जीवना बाई को उसके मरने का बहुत ग़म हुआ। क्या हुआ अगर ग़ुस्से में के एक दिन उसने जीवना बाई की आँख निकाल दी। तीस साल की शादीशुदा ज़िन्दगी एक लम्हे पर क़ुर्बान नहीं की जा सकती और उसका ग़ुस्सा बजा था।

    अगर मिल मालिक ढोंडू को यूँ बे-क़ुसूर नौकरी से अलग करता तो क्या जीवना की आँख निकल सकती थी। ढोंडू ऐसा था। उसे अपनी बेकारी का ग़म था। अपनी पैंतीस साला मुलाज़मत से बर-तरफ़ होने का रंज था और सब से बड़ा रंज उसे इस बात का था कि ​िमल मालिक ने चलते वक़्त उसे एक धेला भी तो नहीं दिया था।

    पैंतीस साल पहले जैसे ढोंडू ख़ाली हाथ ​िमल में काम करने आया था उसी तरह ख़ाली हाथ वापस लौटा और दरवाज़े से बाहर निकलने पर और अपना नम्बर कार्ड पीछे छोड़ आने पर उसे एक धचका सा लगा। बाहर के उसे ऐसा मालूम हुआ कि जैसे इन पैंतीस सालों में किसी ने उसका सारा रंग, उसका सारा ख़ून उसका सारा रस चूस लिया हो और उसे बेकार समझ कर बाहर कूड़े करकट के ढेर पर फेंक दिया और ढोंडू बड़ी हैरत से मिल के दरवाज़े को और उस बड़ी चिमनी को देखने लगा जो बिल्कुल उसके सर पर ख़ौफ़नाक देव की तरह आसमान से लगी खड़ी थी।

    यकायक ढोंडू ने ग़म और ग़ुस्से से अपने हाथ मले, ज़मीन पर ज़ोर से थूका और फिर ताड़ी ख़ाने चला गया। लेकिन जीवना की एक आँख जब भी जाती, अगर उसके पास इलाज के लिए पैसे होते। वो आँख तो गल-गल कर, सड़-सड़ कर ख़ैराती हस्पतालों में डाक्टरों और कम्पाउण्डरों और नर्सों की बद एहतियातियों, गालियों और लापरवाइयों का शिकार हो गई और जब जीवना अच्छी हुई तो ढोंडू बीमार पड़ गया और ऐसा बीमार पड़ा कि फिर बिस्तर से उठ सका।

    उन दिनों जीवना उसकी देख भाल करती थी। शांता बाई ने मदद के तौर पर उसे चन्द घरों में बर्तन माँझने का काम दिलवा दिया था और गो वो अब बूढ़ी थी और मश्शाक़ी और सफ़ाई से बर्तनों को साफ़ रख सकती थी फिर भी वो आहिस्ता आहिस्ता रेंग-रेंग कर अपने कमज़ोर हाथों में झूटी ताक़त के बाद सहारे पर जैसे-तैसे काम करती रही।

    ख़ूबसूरत लिबास पहनने वाली, ख़ुशबूदार तेल लगाने वाली बीवियों की गालियाँ सुनती रही और काम करती रही। क्योंकि उसका ढोंडू बीमार था और उसे अपने आप को और अपने ख़ाविन्द को ज़िन्दा रखना था। लेकिन ढोंडू ज़िन्दा रहा और अब जीवना बाई अकेली थी।

    ख़ैरियत इसमें थी कि वो बिल्कुल अकेली थी और अब उसे सिर्फ़ अपना धन्दा करना था। शादी के दो साल बाद उसके हाँ एक लड़की पैदा हुई लेकिन जब वो जवान हुई तो किसी बदमाश के साथ भाग गई और उसका आज तक किसी को पता चला कि वो कहाँ है। फिर किसी ने बताया और फिर बाद में बहुत से लोगों ने बताया कि जीवना बाई की बेटी फ़ारस रोड पर चमकीला भड़कीला रेशमी लिबास पहने बैठी है लेकिन जीवना को यक़ीन आया। उसने अपनी सारी ज़िन्दगी पाँच रुपए चार आने की धोती में बसर कर दी थी और उसे यक़ीन था कि उसकी लड़की भी ऐसा करेगी।

    वो ऐसा नहीं करेगी। इसका उसे कभी ख़याल आया था। वो कभी फ़ारस रोड नहीं गई क्योंकि उसे यक़ीन था कि उसकी बेटी वहाँ नहीं है। भला उसकी बेटी वहाँ क्यों जाने लगी। यहाँ अपनी खोली में क्या था। पाँच रुपए चार आने वाली धोती थी। बाजरे की रोटी थी। ठण्डा पानी था। सूखी इज़्ज़त थी। ये सब कुछ छोड़कर फ़ारस रोड क्यों जाने लगी। उसे तो कोई बदमाश अपनी मोहब्बत का सब्ज़ बाग़ दिखा कर ले गया था क्योंकि औरत मोहब्बत के लिए सब कुछ कर गुज़रती है। ख़ुद वो तीस साल पहले अपने ढोंडू के लिए अपने माँ बाप का घर छोड़ के चली नहीं आई थी। जिस दिन ढोंडू मरा और जब लोग उसकी लाश जलाने के लिए ले जाने लगे और जीवना ने अपनी सिंदूर की डिबिया अपनी बेटी की अंगिया पर उण्डेल दी जो उसने बड़ी मुद्दत से ढोंडू की नज़रों से छुपा रक्खी थी।

    ऐन उसी वक़्त एक गदराए हुए जिस्म की भारी औरत बड़ा चमकीला लिबास पहने उससे के लिपट गई और फूट-फूट के रोने लगी और उसे देख कर जीवना को यक़ीन गया कि जैसे उसका सब कुछ मर गया है।

    उसका पति उसकी बेटी, उसकी इज़्ज़त। जैसे वो ज़िन्दगी भर रोटी नहीं ग़लाज़त खाती रही है। जैसे उसके पास कुछ नहीं था। शुरू दिन ही से कुछ नहीं था। पैदा होने से पहले ही उससे सब कुछ छीन लिया गया था। उसे निहत्ता, नंगा और बेइज़्ज़त कर दिया गया था और जीवना को उसी एक लम्हे में एहसास हुआ कि वो जगह जहाँ उसका ख़ाविन्द ज़िन्दगी भर काम करता रहा और वो जगह जहाँ उसकी आँख अंधी हो गई और वो जगह जहाँ उसकी बेटी अपनी दुकान सजा के बैठ गई, एक बहुत बड़ा कारख़ाना था जिस में कोई ज़ालिम जाबिर हाथ इंसानी जिस्मों को लेकर गन्ने का रस निकालने वाली चर्ख़ी में ठूँसता चला जाता है और दूसरे हाथ से तोड़ मरोड़ कर दूसरी तरफ़ फेंकता जाता है। यकायक जीवना अपनी बेटी को धक्का दे कर अलग खड़ी हो गई और चीख़ें मार मार कर रोने लगी।

    तीसरी साड़ी का रंग मटमैला नीला है। यानी नीला भी है और मैला भी और मटियाला भी है। कुछ ऐसा अजब सा रंग है जो बार-बार धोने पर भी नहीं निखरता बल्कि ग़लीज़ हो जाता है। ये मेरी बीवी की साड़ी है। मैं फ़ोर्ट में धन्नू भाई की फ़र्म में क्लर्की करता हूँ मुझे पैंसठ रुपए तनख़्वाह मिलती है। सेवन मिल और बक्स​िरया मील के मज़दूरों को यही तनख़्वाह मिलती है इसलिए मैं भी उनके साथ आठ नम्बर की चाल की एक खोली में रहता हूँ।

    मगर मैं मज़दूर नहीं हूँ क्लर्क हूँ। मैं फ़ोर्ट में नौकर हूँ। मैं दसवीं पास हूँ। मैं टाइप कर सकता हूँ। मैं अंग्रेज़ी में अर्ज़ी भी लिख सकता हूँ। मैं अपने वज़ीर-ए-आज़म की तक़रीर जलसे में सुन कर समझ भी लेता हूँ। आज उनकी गाड़ी थोड़ी देर में महालक्ष्मी के पुल पर आएगी, नहीं वो रेस कोर्स नहीं जाएँगे। वो समुन्दर के किनारे एक शानदार तक़रीर करेंगे। इस मौक़े पर लाखों आदमी जमा होंगे। उन लाखों में मैं भी एक हूँगा।

    मेरी बीवी को अपने वज़ीर-ए-आज़म की बातें सुनने का बहुत शौक़ है मगर मैं उसे अपने साथ नहीं ले जा सकता क्योंकि हमारे आठ बच्चे हैं और घर में हर वक़्त परेशानी सी रहती है। जब देखो कोई कोई चीज़ कम हो जाती है। राशन तो रोज़ कम पड़ जाता है। अब नल में पानी भी कम आता है। रात को सोने के लिए जगह भी कम पड़ जाती है और तनख़्वाह तो इस क़दर कम पड़ती है कि महीने में सिर्फ़ पंद्रह दिन चलती है। बाक़ी पंद्रह दिन सूद-ख़ोर पठान चलाता है और वो भी कैसे गालियाँ बकते-बकते, घसीट-घसीट कर, किसी सुस्त-रफ़्तार गाड़ी की तरह ये ज़िन्दगी चलती है।

    मेरे आठ बच्चे हैं, मगर ये स्कूल में नहीं पढ़ सकते। मेरे पास उनकी फ़ीस के पैसे कभी होंगे। पहले-पहल जब मैंने ब्याह किया था और सावित्री को अपने घर यानी इस खोली में लाया था तो मैंने बहुत कुछ सोचा था। उन दिनों सावित्री भी बड़ी अच्छी-अच्छी बातें सोचा करती थी। गोभी के नाज़ुक-नाज़ुक हरे-हरे पत्तों की तरह प्यारी-प्यारी बातें। जब वो मुस्कुराती थी तो सिनेमा की तस्वीर की तरह ख़ूबसूरत दिखाई दिया करती थी। अब वो मुस्कुराहट जाने कहाँ चली गई है। उसकी जगह एक मुस्तक़िल त्योरी ने ले ली है। वो ज़रा सी बात पर बच्चों को बेतहाशा पीटना शुरू कर देती है और मैं तो कुछ भी कहूँ, कैसे भी कहूँ, कितनी ही लजाजत से कहूँ वो बस काट खाने को दौड़ती है। पता नहीं सावित्री को क्या हो गया है।

    पता नहीं मुझे क्या हो गया है। मैं दफ़्तर में सेठ की गालियाँ सुनता हूँ। घर पर बीवी की गालियाँ सहता हूँ और हमेशा ख़ामोश रहता हूँ। कभी-कभी सोचता हूँ, शायद मेरी बीवी को एक नई साड़ी की ज़रूरत है, शायद उसे सिर्फ़ एक नई साड़ी ही की नहीं, इक नए चेहरे, एक नए घर, एक नए माहौल, एक नई ज़िन्दगी की ज़रूरत है मगर अब इन बातों के सोचने से क्या होता है। अब तो आज़ादी गई है और हमारे वज़ीर-ए-आज़म ने ये कह दिया है कि इस नस्ल को यानी हम लोगों को अपनी ज़िन्दगी में कोई आराम नहीं मिल सकता। मैंने सावित्री को अपने वज़ीर-ए-आज़म की तक़रीर जो अख़बार में छपी थी सुनाई तो वो उसे सुन कर आग बगूला हो गई और उसने ग़ुस्से में आकर चूल्हे के क़रीब पड़ा हुआ एक चिमटा मेरे सर पर दे मारा। ज़ख़्म का निशान जो आप मेरे माथे पर देख रहे हैं उसी का निशान है।

    सावित्री की मटमैली नीली साड़ी पर भी ऐसे कई ज़ख़्मों के निशान हैं मगर आप उन्हें देख नहीं सकेंगे। मैं देख सकता हूँ। उनमें से एक निशान तो उसी मोंगिया रंग की जॉर्जट की साड़ी का है जो उसने ओपेरा हाउसके नज़दीक भोंदू राम पार्चा फ़रोश की दुकान पर देखी थी।

    एक निशान उस खिलौने का है जो पच्चीस रुपए का था और जिसे देख कर मेरा पहला बच्चा ख़ुशी से किलकारियाँ मारने लगा था, लेकिन जिसे हम ख़रीद सके और जिसे पा कर मेरा बच्चा दिन भर रोता रहा।

    एक निशान उस तार का है जो एक दिन जबलपुर से आया था जिस में सावित्री की माँ की शदीद अलालत की ख़बर थी। सावित्री जबलपुर जाना चाहती थी लेकिन हज़ार कोशिश के बाद भी किसी से मुझे रुपए उधार मिल सके थे और सावित्री जबलपुर जा सकी थी।

    एक निशान उस तार का था जिस में उसकी माँ की मौत का ज़िक्र था। एक निशान... मगर मैं किस किस निशान का ज़िक्र करूँ। ये निशान उन चितले-चितले, गदले-गदले ग़लीज़ दाग़ों से सावित्री की पाँच रुपए चार आने वाली साड़ी भरी पड़ी है। रोज़-रोज़ धोने पर भी ये दाग़ नहीं छूटते और शायद जब तक ये ज़िन्दगी रहे ये दाग़ यूँ ही रहेंगे। एक साड़ी से दूसरी साड़ी में मुन्तक़िल होते जाएँगे।

    चौथी साड़ी क़िरमिज़ी रंग की है और क़िरमिज़ी रंग में भूरा रंग भी झलक रहा है। यूँ तो ये सब मुख़्तलिफ़ रंगों वाली साड़ियाँ हैं, लेकिन भूरा रंग इन सब में झलकता है। ऐसा मालूम होता है जैसे उन सबकी ज़िन्दगी एक है। जैसे उन सब की क़ीमत एक है। जैसे ये सब ज़मीन से कभी ऊपर नहीं उठेंगी। जैसे उन्होंने कभी शबनम में हँसती हुई धनक, उफ़ुक़ पर चमकती हुई शफ़क़, बादलों में लहराती हुई बर्क़ नहीं देखी। जैसे शांता बाई की जवानी है। वो जीवना का बुढ़ापा है। वो सावित्री का अधेड़-पन है। जैसे ये सब साड़ियाँ, ज़िंद​िगयाँ, एक रंग, एक सत्ह, एक तवातुर, एक तसलसुल-ए-यकसानियत लिए हुए हवा में झूलती जाती हैं।

    ये क़िरमिज़ी रंग की भूरे रंग की साड़ी झब्बू भय्ये की औरत की है। उस औरत से मेरी बीवी कभी बात नहीं करती क्योंकि एक तो उसके कोई बच्चा वच्चा नहीं है और ऐसी औरत जिसके कोई बच्चा हो बड़ी नहस होती है। जादू टोने कर के दूसरों के बच्चों को मार डालती है और बद-रूहों को बुला के अपने घर में बसा लेती है। मेरी बीवी उसे कभी मुँह नहीं लगाती।

    ये औरत झब्बू भय्या ने ख़रीद कर हासिल की है। झब्बू भय्या मुरादाबाद का रहने वाला है लेकिन बचपन ही से अपना देस छोड़ कर इधर चला आया। वो मराठी और गुजराती ज़बान में बड़े मज़े से गुफ़्तुगू कर सकता है। इसी वज्ह से उसे बहुत जल्द पवार मिल के ​गिनी खाते में जगह मिल गई।

    झब्बू भय्या को शुरू ही से ब्याह का शौक़ था। उसे बीड़ी का, ताड़ी का, किसी चीज़ का शौक़ नहीं था। शौक़ था तो उसे सिर्फ़ इस बात का कि उसकी शादी जल्द से जल्द हो जाए। जब उसके पास सत्तर अस्सी रुपए इकट्ठे हो गए तो उसने अपने देस जाने की ठानी ताकि वहाँ अपनी बिरादरी से किसी को ब्याह लाए, मगर फिर उसने सोचा इन सत्तर अस्सी रूपों से क्या होगा, आने जाने का किराया भी बड़ी मुश्किल से पूरा होगा।

    चार साल की मेहनत के बाद उसने ये रक़म जोड़ी थी लेकिन इस रक़म से वो मुरादाबाद जा सकता था, जा के शादी नहीं कर सकता था। इसलिए झब्बू भय्या ने एक बदमाश से बातचीत कर के उस औरत को सौ रुपए में ख़रीद लिया।

    अस्सी रुपए उसने नक़्द दिए। बीस रुपए उधार में रहे जो उसने एक साल के अर्से में अदा कर दिए बाद में झब्बू भय्या को मालूम हुआ कि ये औरत भी मुरादाबाद की रहने वाली थी। धीरज गाँव की और उसकी बिरादरी की ही थी। झब्बू बड़ा ख़ुश हुआ। चलो यहीं बैठे-बैठे सब काम हो गया।

    अपनी जात बिरादरी की, अपने ज़िले की। अपने धर्म की औरत यहीं बैठे बिठाए सौ रुपए में मिल गई। उसने बड़े चाव से अपना ब्याह रचाया और फिर उसे मालूम हुआ कि उसकी बीवी लड़िया बहुत अच्छा गाती है। वो ख़ुद भी अपनी पाटदार आवाज़ में ज़ोर से गाने बल्कि गाने से ज़ियादा चिल्लाने का शौक़ीन था।

    अब तो खोली में दिन रात गोया किसी ने रेडियो खोल दिया हो। दिन में खोली में लड़िया काम करते हुए गाती थी। रात को झब्बू और लड़िया दोनों गाते थे।

    उनके हाँ कोई बच्चा था। इसलिए उन्होंने एक तोता पाल रक्खा था। मियाँ मिट्ठू ख़ाविन्द और बीवी को गाते देख देख कर ख़ुद भी लहक-लहक कर गाने लगे। लड़िया में एक और बात भी थी। झब्बू बीड़ी पीता सिगरेट ताड़ी शराब। लड़िया बीड़ी, सिगरेट, ताड़ी सभी कुछ पीती थी। कहती थी पहले वो ये सब कुछ नहीं जानती थी मगर जब से वो बदमाशों के पल्ले पड़ी उसे ये सब बुरी बातें सीखना पड़ीं और अब वो और सब बातें तो छोड़ सकती है मगर बीड़ी और ताड़ी नहीं छोड़ सकती।

    कई बार ताड़ी पी कर लड़िया ने झब्बू पर हमला कर दिया और झब्बू ने उसे रुई की तरह धुन कर रख दिया। उस मौक़े पर तोता बहुत शोर मचाता था। रात को दोनों को गालियाँ बकते देख कर ख़ुद भी पिंजरे में टँगा हुआ ज़ोर-ज़ोर से वही गालियाँ बकता जो वो दोनों बकते थे एक बार तो उसकी गाली सुन कर झब्बू ग़ुस्से में कि तोते को पिंजरे समेत बद-रौ में फेंकने लगा था मगर जीवना ने बीच में पड़ के तोते को बचा लिया। तोते को मारना पाप है। जीवना ने कहा। तुम्हें ब्राह्मणों को बुला के परासचित करना पड़ेगा। तुम्हारे पंद्रह बीस रुपए खुल जाएँगे। ये सोच कर झब्बू ने तोते को बद-रौ में ग़र्क़ कर देने का ख़याल तर्क कर दिया।

    शुरू-शुरू में तो झब्बू को ऐसी शादी पर चारों तरफ़ से गालियाँ पड़ीं। वो ख़ुद भी लड़िया को बड़े शुब्हा की नज़रों से देखता और कई बार बिला वज्ह उसे पीटा और ख़ुद भी मिल से ग़ैर हाज़िर रह कर उसकी निगरानी करता रहा मगर आहिस्ता-आहिस्ता लड़िया ने अपना एतिबार सारी चाल में क़ायम कर लिया।

    लड़िया कहती थी कि औरत सच्चे दिल से बदमाशों के पल्ले पड़ना पसन्द नहीं करती, वो तो एक घर चाहती है चाहे वो छोटा ही सा हो। वो एक ख़ाविन्द चाहती है जो उसका अपना हो। चाहे वो झब्बू भय्या ऐसा हर वक़्त शोर मचाने वाला, ज़बान दराज़, शेखी ख़ोर ही क्यों हो। वो एक नन्हा बच्चा चाहती है चाहे वो कितना ही बदसूरत क्यों हो और अब लड़िया के पास भी घर था और झब्बू भी था और अगर बच्चा नहीं था तो क्या हुआ... हो जाएगा और अगर नहीं होता तो भगवान की मर्ज़ी। ये मियाँ मिट्ठू ही उसका बेटा बनेगा।

    एक रोज़ लड़िया अपने मियाँ मिट्ठू का पिंजरा झुला रही थी और उसे चूरी खिला रही थी और अपने दिल के सपनों में ऐसे नन्हे से बालक को देख रही थी जो फ़िज़ा में हुमकता उसकी आग़ोश की तरफ़ बढ़ता चला रहा था कि चाल में शोर बढ़ने लगा और उसने दरवाज़े से झाँक कर देखा कि चन्द मज़दूर झब्बू को उठाए चले रहे हैं और उनके कपड़े ख़ून से रंगे हुए हैं। लड़िया का दिल धक से रह गया। वो भागती-भागती नीचे गई और उसने बड़ी दुरुश्ती से अपने ख़ाविन्द को मज़दूरों से छीन कर अपने कंधे पर उठा लिया और अपनी खोली में ले आई।

    पूछने पर पता चला कि झब्बू से गिनी खाते के मैनेजर ने कुछ डाँट डपट की। इस पर झब्बू ने भी उसे दो हाथ जड़ दिए। इस पर बहुत वावेला मचा और मैनेजर ने अपने बदमाशों को बुला कर झब्बू की ख़ूब पिटाई की और उसे ​िमल से बाहर निकाल दिया। ख़ैरियत हुई कि झब्बू बच गया वर्ना उसके मरने में कोई कसर थी।

    लड़िया ने बड़ी हिम्मत से काम लिया। उसने उसी रोज़ से अपने सर पर टोकरी उठा ली और गली गली तरकारी भाजी बेचने लगी, जैसे वो ज़िन्दगी में यही धन्दा करती आई है। इस तरह मेहनत मज़दूरी कर के उसने अपने झब्बू को अच्छा कर लिया।

    झब्बू अब भला चंगा है मगर अब उसे किसी मिल में काम नहीं मिलता। वो दिन भर अपनी खोली में खड़ा महालक्ष्मी के स्टेशन के चारों तरफ़ बुलन्द-ओ-बाला कारख़ानों की चिमनियों को तकता रहता है। सेवन ​िमल, न्यू ​िमल, ओलड ​िमल, पवार ​िमल, धनराज ​िमल लेकिन उसके लिए किसी ​िमल में जगह नहीं है क्योंकि मज़दूर को गालियाँ खाने का हक़ है गाली देने का हक़ नहीं है।

    आजकल लड़िया बाज़ारों और गलियों में आवाज़ें दे कर भाजी तरकारी फ़रोख़्त करती है और घर का सारा काम-काज भी करती है। उसने बीड़ी, ताड़ी सब छोड़ दी है। हाँ उसकी साड़ी, क़िरमिज़ी भूरे रंग की साड़ी जगह-जगह से फटती जा रही है। थोड़े दिनों तक अगर झब्बू को काम मिला तो लड़िया को अपनी साड़ी पर पुरानी साड़ी के टुकड़े जोड़ना पड़ेंगे और अपने मियाँ मिट्ठू को चूरी खिलाना बन्द करना पड़ेगी।

    पाँचवीं साड़ी का किनारा गहरा नीला है। साड़ी का रंग गदला सुर्ख़ है लेकिन किनारा गहरा नीला है और इस नीले में अब भी कहीं-कहीं चमक बाक़ी है। ये साड़ी दूसरी साड़ियों से बढ़िया है क्योंकि ये साढ़े पाँच रुपए चार आने की नहीं है। उसका कपड़ा, उसकी चमक दमक कहे देती है कि ये उनसे ज़रा मुख़्तलिफ़ है। आप को दूर से ये मुख़्तलिफ़ मालूम नहीं होती होगी मगर मैं जानता हूँ कि ये उनसे ज़रा मुख़्तलिफ़ है। उसका कपड़ा बेहतर है। उसका किनारा चमकदार है। उसकी क़ीमत पौने नौ रुपए है।

    ये साड़ी मंजूला की है। ये साड़ी मंजूला के ब्याह की है। मंजूला के ब्याह को अभी छः माह भी नहीं हुए हैं। उसका ख़ाविन्द गुज़श्ता माह चर्ख़ी के घूमते हुए पट्टे की लपेट में कि मारा गया था और अब सोलह बरस की ख़ूबसूरत मंजूला बेवा है। उसका दिल जवान है। उसका जिस्म जवान है। उसकी उमंगें जवान हैं लेकिन वो अब कुछ नहीं कर सकती क्योंकि उसका ख़ाविन्द मिल के एक हा​िदसे में मर गया है।

    वो पट्टा बड़ा ढीला था और घूमते हुए बार-बार फटफटाता था और काम करने वालों के एहतिजाज के बावुजूद उसे ​िमल मालिकों ने नहीं बदला था क्योंकि काम चल रहा था और दूसरी सूरत में थोड़ी देर के लिए काम बन्द करना पड़ता है। पट्टे को तब्दील करने के लिए रुपए ख़र्च होते हैं। मज़दूर तो किसी वक़्त भी तब्दील किया जा सकता है। इसके लिए रुपए थोड़ी ख़र्च होते हैं लेकिन पट्टा तो बड़ी क़ीमती शय है।

    जब मंजूला का ख़ाविन्द मारा गया तो मंजूला ने हर्जाने की दरख़्वास्त दी जो ना-मंज़ूर हुई क्योंकि मंजूला का ख़ाविन्द अपनी ग़फ़लत से मरा था, इसलिए मंजूला को कोई हर्जाना मिला।

    वो अपनी वही नई दुल्हन की साड़ी पहने रही जो उसके ख़ाविन्द ने पौने नौ रुपए में उसके लिए ख़रीदी थी। क्योंकि उसके पास कोई दूसरी साड़ी थी जो वो अपने ख़ाविन्द की मौत के सोग में पहन सकती। वो अपने ख़ाविन्द के मर जाने के बाद भी दुल्हन का लिबास पहनने पर मजबूर थी क्योंकि उसके पास कोई दूसरी साड़ी थी और जो साड़ी थी वो यही गदले सुर्ख़ रंग की थी। पौने नौ रुपए की साड़ी जिस का किनारा गहरा नीला है।

    शायद अब मंजूला भी पाँच रुपए चार आने की साड़ी पहनेगी। उसका ख़ाविन्द ज़िन्दा रहता जब कभी वो दूसरी साड़ी पाँच रुपए चार आने की लाती, इस लिहाज़ से उसकी ज़िन्दगी में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं आया। मगर फ़र्क़ इतना ज़रूर हुआ है कि वो ये साड़ी आज पहनना चाहती है। एक सफ़ेद साड़ी पाँच रुपए चार आने वाली जिसे पहन कर वो दुल्हन नहीं बेवा मालूम हो सके। ये साड़ी उसे दिन रात काट खाने को दौड़ती है। इस साड़ी से जैसे उसके मरहूम ख़ाविन्द की बाँहें लिपटी हैं, जैसे उसके हर तार पर उसके शफ़्फ़ाफ़ बोसे मरक़ूम हैं, जैसे उसके ताने बाने में उसके ख़ाविन्द की गर्म-गर्म साँसों की हिद्दत-आमेज़ ग़ुनूदगी है। उसके सियाह बालों वाली छाती का सारा प्यार दफ़्न है। जैसे अब ये साड़ी नहीं है, एक गहरी क़ब्र है जिस की हौलनाक पहनाइयों को वो हर वक़्त अपने जिस्म के ​िगर्द लपेट लेने पर मजबूर है। मंजूला ज़िन्दा क़ब्र में गाड़ी जा रही है।

    छटी साड़ी का रंग लाल है लेकिन उसे यहाँ नहीं होना चाहिए क्योंकि उसकी पहनने वाली मर चुकी है फिर भी ये साड़ी यहाँ जंगले पर बदस्तूर मौजूद है। रोज़ की तरह धुली धुलाई हवा में झूल रही है।

    ये माई की साड़ी है जो हमारी चाल के दरवाज़े के क़रीब अन्दर खुले आंगन में रहा करती थी। माई का एक बेटा है सीतो। वो अब जेल में है। हाँ सीतो की बीवी और उसका लड़का यहीं नीचे आँगन में दरवाज़े के क़रीब नीचे पड़े रहते हैं।

    सीतो और सीतो की बीवी, उनकी लड़की और बुढ़िया माई, ये सब लोग हमारी चाल के भंगी हैं। उनके लिए खोली भी नहीं है और उनके लिए इतना कपड़ा भी नहीं मिलता जितना हम लोगों को मिलता है इसलिए ये लोग आँगन में रहते हैं। वहीं खाना खाते हैं वहीं ज़मीन पर पड़ के सो रहते हैं। यहीं पे ये बुढ़िया मारी गई थी।

    वो बड़ा सूराख़ जो आप इस साड़ी में देख रहे हैं पल्लू के क़रीब। ये गोली का सूराख़ है। ये कारतूस की गोली माई को भंगियों की हड़ताल के दिनों में लगी थी। नहीं वो उस हड़ताल में हिस्सा नहीं ले रही थी। वो बेचारी तो बहुत बूढ़ी थी, चल फिर भी सकती थी। उस हड़ताल में तो उसका बेटा सीतो और दूसरे भंगी शामिल थे, ये लोग महँगाई माँगते थे और खोली का किराया माँगते थे यानी अपनी ज़िन्दगी के लिए दो वक़्त की रोटी, कपड़ा और सर पर एक छत चाहते थे। इसलिए उन लोगों ने हड़ताल की थी और जब हड़ताल ख़िलाफ़-ए-क़ानून क़रार दे दी गई तो उन लोगों ने जुलूस निकाला और उस जुलूस में माई का बेटा सीतो आगे आगे था और ख़ूब ज़ोर-ओ-शोर से नारे लगाता था। फिर जब जुलूस भी ख़िलाफ़-ए-क़ानून क़रार दे दिया गया तो गोली चली और हमारी चाल के सामने चली।

    हम लोगों ने अपने दरवाज़े बन्द कर लिए लेकिन घबराहट में चाल का दरवाज़ा बन्द करना किसी को याद रहा और फिर हमें बन्द कमरों में ऐसा मालूम हुआ गोया गोली इधर से, उधर से चारों तरफ़ से चल रही हो।

    थोड़ी देर के बाद बिल्कुल सन्नाटा हो गया और जब हम लोगों ने डरते-डरते दरवाज़ा खोला और बाहर झाँक के देखा तो जलूस तितर-बितर हो चुका था और हमारी चाल के क़रीब बुढ़िया मरी पड़ी थी। ये उसी बुढ़िया की लाल साड़ी है जिस का बेटा सीतो अब जेल में है। इस लाल साड़ी को अब बुढ़िया की बहू पहनती है। उस साड़ी को बुढ़िया के साथ जला देना चाहिए था मगर क्या किया जाए तन ढकना ज़ियादा ज़रूरी है। मुर्दों की इज़्ज़त-ओ-एहतिराम से भी कहीं ज़ियादा ज़रूरी है कि ज़िन्दों का तन ढका जाए।

    ये साड़ी जलने-जलाने के लिए नहीं है। तन ढकने के लिए है। हाँ कभी-कभी सीतो की बीवी उसके पल्लू से अपने आँसू पोंछ लेती है क्योंकि उसमें पिछले इसी बरसों के सारे आँसू और सारी उमंगें और सारी फ़त्हें और शिकस्तें जज़्ब हैं। आँसू पोंछ कर सीतो की बीवी फिर उसी हिम्मत से काम करने लगती है जैसे कुछ हुआ ही नहीं। कहीं गोली नहीं चली, कोई जेल नहीं गया। भंगन की झाड़ू उसी तरह चल रही है।

    लो बातों-बातों में वज़ीर-ए-आज़म साहब की गाड़ी निकल गई। वो यहाँ नहीं ठहरी। मैं समझता था वो यहाँ ज़रूरी ठहरेगी। वज़ीर-ए-आज़म साहब दर्शन देने के लिए गाड़ी से निकल कर थोड़ी देर के लिए प्लेटफ़ार्म पर टहलेंगे और शायद हवा में झूलती हुई इन छः साड़ियों को भी देख लेंगे जो महालक्ष्मी के पुल के बाईं तरफ़ लटक रही हैं। ये छः साड़ियाँ जो बहुत मामूली औरतों की साड़ियाँ हैं। ऐसी मामूली औरतें जिन से हमारे देस के छोटे-छोटे घर बनते हैं।

    जहाँ एक कोने में चूल्हा सुलगता है, एक कोने में पानी का घड़ा रक्खा है। ऊपरी ताक़चे में शीशा है, कंघी है, सिन्दूर की डिबिया है, खाट पर नन्हा सो रहा है। अलगनी पर कपड़े सूख रहे हैं। ये उन छोटे-छोटे लाखों करोड़ों, घरों को बनाने वाली औरतों की साड़ियाँ हैं जिन्हें हम हिन्दुस्तान कहते हैं। ये औरतें जो हमारे प्यारे प्यारे बच्चों की माएँ हैं, हमारे भोले भाइयों की अज़ीज़ बहनें हैं, हमारी मासूम मोहब्बतों का गीत हैं, हमारी पाँच हज़ार साला तहज़ीब का सब से ऊँचा निशान हैं।

    वज़ीर-ए-आज़म साहब! ये हवा में झूलती हुई साड़ियाँ तुम से कुछ कहना चाहती हैं। तुम से कुछ माँगती हैं। ये कोई बहुत बड़ी क़ीमती चीज़ तुम से नहीं माँगती हैं। ये कोई बड़ा मुल्क, बड़ा ओहदा और बड़ी मोटर कार, कोई परमिट, कोई ठेका, कोई प्रॉपर्टी, ये ऐसी किसी चीज़ की तालिब नहीं हैं। ये तो ज़िन्दगी की बहुत छोटी-छोटी चीज़ें माँगती हैं।

    देखिए! ये शांता बाई की साड़ी है जो अपने बचपन की खोई हुई धनक तुम से माँगती है।

    ये जीवना बाई की साड़ी है जो अपनी आँख की रौशनी और अपनी बेटी की इज़्ज़त माँगती है।

    ये सावित्री की साड़ी है जिसके गीत मर चुके हैं और जिसके पास अपने बच्चों के लिए स्कूल की फ़ीस नहीं है।

    ये लड़िया है जिस का ख़ाविन्द बे-कार है और जिसके कमरे में एक तोता है जो दो दिन का भूका है।

    ये नई दुल्हन की साड़ी है जिसके ख़ाविन्द की ज़िन्दगी चमड़े के पट्टे से भी कम क़ीमती है।

    ये बूढ़ी भंगन की लाल साड़ी है जो बन्दूक़ की गोली को हल के फल में तब्दील कर देना चाहती है ताकि धरती से इंसान का लहू फूल बन कर खिल उठे और गन्दुम के सुनहरे ख़ोशे हँस कर लहराने लगें। लेकिन वज़ीर-ए-आज़म साहब की गाड़ी नहीं रुकी और वो इन छः साड़ियों को नहीं देख सकते और तक़रीर करने के लिए चौपाटी चले गए, इसलिए अब मैं आप से कहता हूँ। अगर कभी आप की गाड़ी उधर से गुज़रे तो आप उन छः साड़ियों को ज़रूर देखिए जो महालक्ष्मी के पुल के बाईं तरफ़ लटक रही हैं और फिर उन रंगा रंग रेशमी साड़ियों को भी देखिए जिन्हें धोबियों ने उसी पुल के दाएँ तरफ़ सूखने के लिए लटका रक्खा है और जो उन घरों से आई हैं जहाँ ऊँची-ऊँची चिमनियों वाले कारख़ानों के मालिक या ऊँची-ऊँची तनख़्वाह पाने वाले रहते हैं। आप उस पुल के दाईं-बाईं दोनों तरफ़ ज़रूर देखिए और फिर अपने आप से पूछिए कि आप किस तरफ़ जाना चाहते हैं। देखिए! मैं आप से इश्तिराकी बनने के लिए नहीं कह रहा हूँ। मैं आपको जमाती जंग की तलक़ीन भी नहीं कर रहा हूँ। मैं सिर्फ़ ये जानना चाहता हूँ कि आप महालक्ष्मी पुल के दाईं तरफ़ हैं या बाईं तरफ़?

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25

    Register for free
    बोलिए