तक़ी कातिब
स्टोरीलाइन
अफ़साना एक ऐसे मौलाना की दास्तान बयान करता है जो अपने जवान बेटे की शादी के ख़िलाफ़़ है। जवानी में उसकी बीवी की मौत हो गई थी और उसने ही बेटे को माँ और बाप दोनों बनकर पाला था। मगर अब वह जवान हो गया था और उसे एक औरत की शदीद ज़रूरत थी। पर मौलाना थे कि उसकी शादी ही नहीं करना चाहते थे। जहाँ भी उसकी शादी की बात चलती, वह किसी न किसी बहाने से उसे रुकवा देते। आख़िर में उसने मौलाना के ख़िलाफ़़ जाकर शादी कर ली और उन्हें छोड़कर दिल्ली चला गया। वहाँ जाकर उसने अपने मौलवी पिता की ख़ैरियत जानने के लिए ख़त लिखा और साथ ही सलाह दी कि वह भी अपनी शादी कर लें।
वली मोहम्मद जब तक़ी को पहली मर्तबा दफ़्तर में लाया तो उसने मुझे क़तअ’न मुतास्सिर न किया।
लखनऊ और दिल्ली के जाहिल और ख़ुद सर क़ातिबों से मेरा जी जला हुआ था। एक था उसको जा व बेजा पेश डालने की बुरी आदत थी। मौत को मूत और सौत को सूत बना देता था। मैंने बहुत समझाया मगर वो न समझा। उसको अपने अह्ल-ए-ज़बान होने का बहुत ज़ो’म था। मैंने जब भी उस को पेश के मुआ’मले में टोका उसने अपनी दाढ़ी को ताव दे कर कहा, “मैं अह्ल-ए-ज़बान हूँ साहब... इसके इलावा तीस सिपारों का हाफ़िज़ हूँ। ए’राब के मुआ’मले में आप मुझसे कुछ नहीं कह सकते।”
मैंने उसे और कुछ न कहा और रुख़सत कर दिया।
उसकी जगह एक दिल्ली के कातिब ने ले ली और सब ठीक हो गया, मगर उसको इस्लाह करने का ख़ब्त था, और इस्लाह भी ऐसी कि मेरी आँखों में ख़ून उतर आता था। कोई मज़मून था। मैंने उसमें ये लिखा, “उसके हाथों के तोते उड़ गए।” उसने ये इस्लाह फ़रमाई, “उसके हाथ-पांव के तोते उड़ गए।”
मैंने उसका मज़ाक़ उड़ाया तो वो ख़ालिस देहलवी लब-ओ-लहजे में बड़बड़ाता मुलाज़मत से अ’लाहिदा हो गया।
रामपुर का एक कातिब था। बहुत ही ख़ुश ख़त था मगर उसको इख़्तसार के दौरे पड़ते थे। सतरें की सतरें और पैरे के पेरे ग़ायब करता था। जब उसको पूरा सफ़ा दुबारा लिखने को कहता तो वो जवाब देता, “इतनी मेहनत मुझसे न होगी साहब, पोट में लिख दूंगा।”
पोट में लिखवाना मुझे सख़्त नापसंद था, चुनांचे रामपुरी कातिब भी ज़्यादा दिन दफ़्तर में न टिक सके।
वली मोहम्मद हेड कातिब जब तक़ी को पहली मर्तबा दफ़्तर में लाया तो उसने मुझे क़तअ’न मुतास्सिर न किया। ख़त का नमूना देखा, ख़ास अच्छा नहीं था। दायरों में पुख़्तगी ही नहीं थी। मैं ग़ुनजान लिखाई का क़ाइल हूँ। वो छिदरा लिखता था। कम उम्र था, अंदाज़-ए-गुफ़्तगु में अ’जीब क़िस्म की बौखलाहट थी। बात करते वक़्त उसका एक बाज़ू हिलता रहता था, जैसे क्लाक का पेंडुलम। रंग सफ़ेद था, बालाई होंट पर भूरे भूरे महीन बाल थे। ऐसा मालूम होता था कि उसने ख़ुद किताबत की स्याही से ये हल्की हल्की मूंछें बनाई हैं।
मैंने उसे चंद रोज़ के लिए रखा, मगर उसने अपनी शराफ़त, मेहनत और ताबे’दारी से दफ़्तर में अपने लिए मुस्तक़िल जगह पैदा कर ली। वली मोहम्मद से मेरे तअ’ल्लुक़ात बहुत बेतकल्लुफ़ थे। जिन्सियात के मुतअ’ल्लिक़ अपनी मा’लूमात में इज़ाफ़ा करने के लिए वो अक्सर मुझसे गुफ़्तुगू किया करता था। इस दौरान में मोहम्मद तक़ी ख़ामोश रहता। औरत और मर्द के जिन्सी तअ’ल्लुक़ का ज़िक्र खुले अलफ़ाज़ में आता तो उसके कान की लवें सुर्ख़ हो जातीं। वली मोहम्मद जो कि शादीशुदा था, उसको ख़ालिस पंजाबी अंदाज़ में छेड़ता।
“मंटो साहब इस का मुर्दा ख़राब हो रहा है, इससे कहिए कि शादी करले... जब भी कोई फ़िल्म देख कर आता है, सारी रात करवटें बदलता रहता है।”
तक़ी आम तौर पर झेंपते हुए कहता, “मंटो साहब, झूट बोलता है।”
वली मोहम्मद की स्याह नोकीली मूंछें थिरकने लगीं, “और ये भी झूट है मंटो साहब, कि ये चाली बिल्डिंग की यहूदी छोकरियों की नंगी टांगें देख कर उनकी नक़्शा कशी किया करता है।”
तक़ी की नाक की चोंच पर पसीने के क़तरे नुमूदार हो जाते, “मैं तो... मैं तो ड्राइंग सीख रहा हूँ।”
वली मोहम्मद उसे और छेड़ता, “ड्राइंग चेहरे की सीखो, ये किस ड्राइंग मास्टर ने तुमसे कहा कि पहले नंगी टांगों से शुरू करो।”
मोहम्मद तक़ी क़रीब क़रीब रो देता, चुनांचे मैं वली मोहम्मद को मना करता कि वो उसे न छेड़ा करे। इस पर वली मोहम्मद कहता, “मंटो साहब, मैं इसके वालिद साहब से कह चुका हूँ, आप से भी कहता हूँ कि इस लौंडे की शादी करा दीजिए, वर्ना इसका मुर्दा बिल्कुल ख़राब हो जाएगा।”
मोहम्मद तक़ी के बाप से मेरी मुलाक़ात हुई। दाढ़ी वाले बुज़ुर्ग थे, नमाज़ रोज़े के पाबंद। माथे पर मेहराब, भिंडी बाज़ार में वली मोहम्मद की शिराकत में घी की एक छोटी सी दुकान करते थे। मोहम्मद तक़ी से उनको बहुत मोहब्बत थी।
बातें करते हुए आपने मुझसे कहा, “तक़ी दो बरस का था कि उसकी वालिदा का इंतक़ाल हो गया... ख़ुदा उसको ग़रीक़-ए-रहमत करे, बहुत ही नेक बीबी थी। मंटो साहब यक़ीन जानिए, उसकी मौत के बाद अ’ज़ीज़ों और दोस्तों ने बहुत ज़ोर दिया कि मैं दूसरी शादी कर लूं मगर मुझे तक़ी का ख़याल था। मैंने सोचा हो सकता है कि मैं उसकी तरफ़ से ग़ाफ़िल हो जाऊं। चुनांचे दूसरी शादी के ख़याल को मैंने अपने क़रीब तक न आने दिया और उसकी परवरिश ख़ुद अपने हाथों से की। अल्लाह का बड़ा फ़ज़ल-ओ-करम है कि उसने मुझ गुनहगार को सुर्ख़रु किया। ख़ुदा उसको ज़िंदगी और नेकी की हिदायत दे!”
मोहम्मद तक़ी अपने बाप के इस ईसार की हमेशा तारीफ़ किया करता, “बहुत कम बाप इतनी बड़ी क़ुर्बानी कर सकते हैं। अब्बा जवान थे, अच्छा खाते थे, चाहते तो चुटकियों में उनको अच्छी से अच्छी बीवी मिल जाती, लेकिन मेरी ख़ातिर उन्होंने तजर्रुद की ज़िंदगी बसर की। इतनी मोहब्बत और इतने प्यार से मेरी परवरिश की कि मुझे माँ की कमी महसूस ही न होने दी।”
वली मोहम्मद भी तक़ी के बाप का मो’तरिफ़ था। मगर उसे सिर्फ़ ये शिकायत थी कि मौलाना ज़रा सनकी हैं। “मंटो साहब, आदमी बहुत अच्छा है, कारोबार में सोलह आने खरा है। तक़ी से बहुत प्यार करता है, लेकिन ये प्यार... मैं अब अपने एहसासात किन अलफ़ाज़ में पेश करूं? उसका प्यार हद से बढ़ा हुआ है... या’नी वो इस तरह प्यार करता है जिस तरह कोई हासिद आशिक़ अपने मा’शूक़ से करता है।”
मैंने वली मोहम्मद से पूछा, “तुम्हारा मतलब?”
वली मोहम्मद ने अपनी मूंछों की नोकें दुरुस्त कीं, “मतलब वतलब मैं नहीं समझा सकता। आप ख़ुद समझ लीजिए।”
मैंने मुस्कुरा कहा, “भाई, तुम ज़रा वज़ाहत से काम लो, तो मैं समझ जाऊंगा।”
वली मोहम्मद ने सुर्खियां लिखने वाले क़लम को कपड़े के चीथड़े से साफ़ करते हुए कहा, “मौलाना सनकी हैं... मुझे मालूम नहीं क्यों? तक़ी कहता है कि पहले उनके प्यार और उनकी शफ़क़त का ये रंग नहीं था जो अब है... या’नी पिछले चंद बरसों से आपने अपने फ़र्ज़ंद अर्जुमंद से पूछ गछ का लामतनाही सिलसिला शुरू कर रखा है। लामतनाही ठीक इस्तेमाल है न मंटो साहब?”
“ठीक इस्तेमाल हुआ है, हाँ ये पूछगछ का सिलसिला क्या है?”
“यही तुम रात को देर से क्यों आए? सफ़ेद गली में क्या करने गए थे? वो यहूदन तुमसे क्या बात कर रही थी? इतने फ़िल्म क्यों देखते हो, पिछले हफ़्ते तुमने किताबत की उजरत में से चार आने कहाँ रखे? वली मोहम्मद से तुम बायकला के पुल पर बैठे क्या बातें कररहे थे? क्या वो तुम्हें वरग़ला तो नहीं रहा था कि शादी कर लो।”
मैंने वली मोहम्मद से पूछा, “वरग़लाना क्या हुआ?”
“मालूम नहीं, लेकिन मौलाना समझते हैं कि तक़ी का हर दोस्त उसे शादी के लिए वरग़लाता है। मैं उसको वरग़लाता तो नहीं लेकिन ये ज़रूर कहता हूँ और अक्सर कहता हूँ कि जान-ए-मन शादी कर लो वर्ना तुम्हारा मुर्दा ख़राब हो जाएगा, और मंटो साहब मैं आपको ख़ुदा की क़सम खा कर कहता हूँ कि लड़के को एक अदद बीवी की अशद ज़रूरत है।”
चार-पाँच बरस गुज़र चुके थे। मोहम्मद तक़ी की मूंछों के भूरे बाल अब महीन नहीं थे। हर रोज़ दाढ़ी मूंडता था, टेढ़ी मांग भी निकालता था और दफ़्तर में जब जज़्बात के मुतअ’ल्लिक़ गुफ़्तगू छिड़ती तो वो क़लम दाँतों में दबा कर ग़ौर से सुनता। औरत और मर्द के जिन्सी तअ’ल्लुक़ का ज़िक्र खुले अलफ़ाज़ में होता तो उसके कानों की लवें सुर्ख़ न होतीं। मोहम्मद तक़ी को बीवी की ज़रूरत हो सकती थी।
एक दिन जबकि और कोई दफ़्तर में नहीं था और अकेला तक़ी तख़्त पर दीवार के साथ पीठ लगाए पर्चे की आख़िरी कापी मुकम्मल कर रहा था। मैंने उसके ख़द्द-ओ-ख़ाल का ग़ौर से मुआ’इना करते हुए पूछा, “तक़ी तुम शादी क्यों नहीं करते?”
सवाल अचानक किया गया था। तक़ी चौंक पड़ा, “जी?”
मेरा ख़याल है, “तुम शादी करलो।”
तक़ी ने क़लम कान में अड़सा और किसी क़दर शर्मा कर कहा, “मैंने अब्बा से बात की है।”
“क्या कहा उन्होंने?”
तक़ी तफ़सील से कुछ कहना चाहता था, मगर न कह सका, “जी वो... कुछ नहीं... वो कहते हैं अभी इतनी जल्दी क्या है?”
“तुम्हारा क्या ख़याल है?”
“जो उनका है।”
इस जवाब के बाद गुफ़्तगू का सिलसिला मुनक़ते हो गया। तक़ी ने पर्चे की आख़िरी कापी मुकम्मल की और उसे जोड़ कर चला गया।
चंद दिन के बाद वली मोहम्मद ने तक़ी की मौजूदगी में मुझसे कहा, “मंटो साहब, कल बड़ा लफ़ड़ा हुआ, मौलाना और तक़ी में धीं पटास होते होते रह गई।”
वली मोहम्मद यूं तो उर्दू बोलता था। लेकिन पंजाबी और बंबई की उर्दू के कई अलफ़ाज़ मज़ाह पैदा करने के लिए इस्तेमाल करने का आदी था।
तक़ी ने उसकी बात सुनी और ख़ामोश रहा।
वली मोहम्मद ने अपनी थिरकती हुई नोकीली मूंछों को आँखों का ज़ाविया बदल कर देखा, फिर उस ज़ाविए को बदल उसने तक़ी की तरफ़ देखा और मुझसे कहा, “लड़के को एक अदद बीवी की अशद ज़रूरत है, लेकिन बाप इस ज़रूरत को मानता ही नहीं। इसने बहुत समझाया मंटो साहब, मगर मौलाना ने एक न सुनी। मंटो साहब, ये क्या मुहावरा है, एक न सुनी? मौलाना ने सुनी तो हज़ार थीं, लेकिन सुनी अनसुनी करदीं। ये मुहावरे भी ख़ूब चीज़ हैं! और मौलाना भी, अपने वक़्त के एक लाजवाब मुहावरे हैं।”
तक़ी भन्ना कर मुझसे मुख़ातिब हुआ, “मंटो साहब, इससे कहिए ख़ामोश रहे।”
वली मोहम्मद बोला, “मंटो साहब, इससे कहिए कि मौलाना के सामने ख़ामोश रहा करे।”
“वो शादी की इजाज़त नहीं देते, ठीक है। बाप हैं वो, इसका नफ़ा नुक़्सान सोच सकते हैं।”मैंने वली मोहम्मद से कहा।
बाप बेटे की चख़ ज़रूर हुई थी। तक़ी ने मौलाना से दरख़्वास्त की थी कि वो उसकी शादी किसी अच्छे घराने में कर दें। ये सुन कर वो चिड़ गए और तक़ी के दोस्तों पर बरसने लगे, “तुम्हारे दोस्तों ने तुम्हारी जड़ों में पानी फेर दिया है। जब मैं तुम्हारी उम्र का था, मुझे मालूम ही नहीं था कि शादी ब्याह किस जानवर का नाम है?”
ये सुन कर तक़ी ने डरते डरते कहा, “लेकिन... आपकी शादी तो चौदह बरस की उम्र में हुई थी।”
मौलाना ने उसे डाँटा, “तुम्हें क्या मालूम है?”
तक़ी ख़ामोश हो गया। वो बहुत ही कमगो और फ़रमांबर्दार क़िस्म का लड़का था। दो-चार मर्तबा उसने बेतकल्लुफ़ गुफ़्तुगू की और उसके खुलने का मौक़ा दिया तो मुझे मालूम हुआ कि उसको बीवी की वाक़िअ’तन ज़रूरत है।
उसने मुझसे एक रोज़ झेंपते हुए कहा, “मेरे ख़यालात आजकल बहुत परागनदा रहते हैं। वली मोहम्मद शादीशुदा है। वो जब अपनी बीवी के साथ बाहर जाता है तो मेरे दिल को जाने क्या होता है। आप ने एक दफ़ा एहसास-ए-कमतरी के मुतअ’ल्लिक़ बातें की थीं, मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैं अ’नक़रीब इसका शिकार होने वाला हूँ। मगर क्या करूं, अब्बा मानते ही नहीं।
मैं शादी की बात करता हूँ तो वो चिड़ जाते हैं, जैसे... जैसे शादी करना कोई गुनाह है। वो अपनी मिसाल देते हैं कि देखो तुम्हारी माँ के मरने के बाद अब तक मैंने शादी नहीं की, लेकिन मंटो साहब, इस मिसाल का मेरे साथ क्या तअ’ल्लुक़ है? उन्होंने शादी की अल्लाह को ये मंज़ूर नहीं था कि उनकी बीवी ज़िंदा रहती, उन्होंने बहुत बड़ी क़ुर्बानी की जो मेरी ख़ातिर दूसरी शादी न की, लेकिन वो चाहते हैं कि मैं कुँवारा ही रहूं।”
मैंने पूछा, “क्यों?”
तक़ी ने जवाब दिया, “मालूम नहीं मंटो साहब, वो मेरी शादी के बारे में कुछ सुनने के लिए तैयार ही नहीं। मैं उनकी बहुत इज़्ज़त करता हूँ, लेकिन कल बातों बातों में जज़्बात से मग़्लूब हो कर मैं गुस्ताख़ी कर बैठा।”
“क्या?”
तक़ी ने इंतहाई नदामत के साथ कहा, “मैं मिन्नत समाजत करते करते और समझाते समझाते तंग आगया था। कल जब उन्होंने मुझसे कहा कि वो मेरी शादी के मुतअ’ल्लिक़ कुछ सुनने को तैयार नहीं तो मैंने ग़ुस्से में आकर उनसे कह दिया, आप नहीं सुनेंगे तो मैं अपनी शादी का बंदोबस्त ख़ुद कर लूंगा।”
मैंने उससे पूछा, “ये सुन कर उन्होंने क्या कहा।”
“अभी अभी घर से निकल जाओ, चुनांचे कल रात मैं यहां दफ़्तर ही में सोया।”
मैंने शाम को वली मोहम्मद के ज़रिये से मौलाना को बुलवाया। चंद जज़्बाती बातें हुईं तो उन्होंने तक़ी को गले लगा कर रोना शुरू कर दिया, फिर शिकवे होने लगे, “मुझे मालूम नहीं था कि ये लड़का जिसकी ख़ातिर मैंने तजर्रुद बर्दाश्त किया एक रोज़ मेरे साथ ऐसी गुस्ताख़ी से पेश आएगा। मैंने माओं की तरह उसे पाला पोसा, आप सूखी खाई पर इसके लिए ख़ुद अपने हाथों घी में गूँध गूँध कर पराठे पकाए।”
मैंने बात काट कर कहा, “मौलाना, ये कब आपके उन एहसानात को नहीं मानता। आपकी तमाम क़ुर्बानियां इसके दिल-ओ-दिमाग़ पर नक़्श हैं। आपने इतना कुछ किया, क्या आप इसकी शादी नहीं कर सकते? माँ-बाप की तो सब से बड़ी ख़्वाहिश ये होती है कि वो अपनी औलाद को फलता फूलता देखें। आपके घर में बहू आएगी, बाल बच्चे होंगे। दादा जान बन कर आपको पुरफ़ख़्र मसर्रत न होगी? मेरा ख़याल है तक़ी को ग़लतफ़हमी हुई है कि आप शादी के ख़िलाफ़ हैं।”
मौलाना लाजवाब हो गए। रूमाल से अपनी आँखें ख़ुश्क करने लगे। थोड़े तवक्कुफ़ के बाद बोले, “पर कोई ऐसा रिश्ता होतो...”
“आप हाँ कर दीजिए, सब ठीक हो जाएगा।”
वली मोहम्मद ने ये कुछ ऐसे अंदाज़ में कहा, “चलिए अंगूठा लगाईए।” मौलाना बिदक गए, “लेकिन ऐसी जल्दी भी क्या है?”
इस पर मैंने बुज़ुर्गों का अंदाज़ इख़्तियार करते हुए कहा, “कार-ए-ख़ैर में देर नहीं होनी चाहिए। आप औरों को छोड़िए, ख़ुद अपनी पसंद का रिश्ता ढूँढिए। माशा अल्लाह डोंगरी में सब लोग आपको जानते हैं। यहां बम्बई में पसंद न हो तो अपने पंजाब में सही, कौन सा काले कोसों दूर है।”
मौलाना ने सर हिला कर सिर्फ़ इतना कहा, “जी हाँ!”
मैंने तक़ी के कांधे पर हाथ रखा, “लो भई तक़ी, फ़ैसला हो गया। मौलाना को तुम ज़िद्दी बच्चों की तरह अब तंग न करना। मैं ख़ुद इस मुआ’मले में इनकी मदद करूंगा।”
ये कह कर मैं मौलाना से मुख़ातिब हुआ, “यहां कुछ ख़ानदान हैं, उनसे मेरी जान पहचान है। मैं अपनी बीवी से कहूंगा वो लड़कियां देख लेगी।”
तक़ी ने हौले से कहा, “आपकी बहुत मेहरबानी।”
कई महीने गुज़र गए मगर तक़ी की शादी की बातचीत कहीं भी शुरू न हुई। वली मोहम्मद इस दौरान में उसे बराबर उकसाता रहा। वो अपने बाप के पीछे पड़ा। नतीजा ये हुआ कि एक रोज़ मौलाना मेरे पास आए और कहा, “सांगली स्ट्रीट की तीसरी गली में नुक्कड़ की बिल्डिंग में... शायद आप जानते ही हूँ, यूपी का एक ख़ानदान रहता है।”
मैंने फ़ौरन कहा, “आप कहिए, मैं जानता हूँ!”
मौलाना ने पूछा, “कैसे लोग हैं?”
“बेहद शरीफ़।”
“जो सब से बड़ा भाई है, उसकी बड़ी लड़की। मैंने सुना है ख़ासी अच्छी है!”
“मैं पैग़ाम भिजवा देता हूँ।”
मौलाना घबरा गए, “नहीं नहीं... इतनी जल्दी नहीं। ये भी तो देखना है कि लड़की शक्ल-ओ-सूरत की कैसी है?”
“मैं अपनी बीवी के ज़रिये से मालूम कर लूंगा।”
मेरी बीवी ने उस लड़की को देखा तो पसंद किया। क़बूलसूरत थी, ता’लीम एंट्रेंस तक थी, तबीयत की बहुत ही अच्छी थी। ये सब खूबियां मौलाना से बयान करदी गईं। वो लड़की के बाप से मिले। जहेज़ और हक़-ए-मेहर के मुतअ’ल्लिक़ बातचीत हुई। ये इब्तिदाई मराहिल बख़ैर-ओ-ख़ूबी तय हो गए।
तक़ी बहुत ख़ुश था लेकिन तीन महीने गुज़र गए और बात वहीं की वहीं रही। आख़िर एक रोज़ मालूम हुआ कि लड़की वालों ने मज़ीद गुफ़्तगु से इनकार कर दिया है क्योंकि वो तक़ी के बाप की मीन मेख़ से तंग आचुके हैं। बार बार वो उनसे जा जा कर ये कहता था, देखिए लड़की के जहेज़ में इतने जोड़े हों, बर्तनों की तादाद ये हो। लड़की ने अगर मेरी हुक्म उ’दूली की तो उसकी सज़ा तलाक़ होगी। फ़िल्म देखने हर्गिज़ न जाएगी, पर्दे में रहेगी।
मैंने जब इन बेजा बातों का ज़िक्र तक़ी से किया तो वो अपने बाप की तरफ़ हो गया।
“नहीं मंटो साहब, लड़की वाले ठीक नहीं। अब्बा का ये कहना ठीक है कि वो मुझे ज़न मुरीद बनाना चाहते हैं।”
मैंने कहा, “ऐसा है तो छोड़ो, किसी और जगह सही।”
तक़ी ने कहा, “अब्बा कोशिश कर रहे हैं।”
मौलाना ने डोंगरी में अपने एक वाक़िफ़कार के ज़रिये से बातचीत शुरू की, सब कुछ तय हो गया। निकाह की तारीख़ भी मुक़र्रर हो गई। मगर एक दम कुछ हुआ और सब कुछ ढह गया।
लड़की वालों को तक़ी पसंद था, लेकिन जब मौलाना से अच्छी तरह मिलने-जुलने का इत्तफ़ाक़ हुआ तो वो पीछे हट गए और लड़की का रिश्ता किसी और जगह पक्का कर दिया। तक़ी ने फिर अपने बाप की तरफदारी की और मुझसे कहा, “ये लोग बड़े लालची थे मंटो साहब, एक दौलतमंद का लड़का मिल गया तो अपनी बात से फिर गए। अब्बा शुरू ही से कहते थे कि ये लोग मुझे ईमानदार मालूम नहीं होते लेकिन में ख़्वाहमख़्वाह उनके पीछे पड़ा रहा कि जल्दी मुआ’मला तय कीजिए।”
कुछ अ’र्से के बाद तीसरी जगह कोशिश शुरू हुई। यहां भी नतीजा सिफ़र। चौथी जगह बातचीत शुरू हुई तो तक़ी ने मुझसे कहा, “मंटो साहब, वो लोग आप से मिलना चाहते हैं।”
“बड़े शौक़ से मिलें।”
मैं उन से मिला। आदमी शरीफ़ थे। मौलाना से उनकी चंद मुख़्तसर बातें हुईं। मैंने तक़ी की तारीफ़ की। मुआमला तय हो गया, लेकिन चंद ही दिनों में गड़बड़ पैदा हो गई। लड़की के बड़े भाई ने किसी से सुना कि मौलाना दुकान पर अपने एक दोस्त से कह रहे थे, “लड़की मेरे कहने पर न चली तो मैं तक़ी की दूसरी शादी कर दूँगा।”
वो ये सुन कर मेरे पास आया। मैंने मौलाना को बुलवाया। उनसे पूछा तो दाढ़ी पर हाथ फेर कर कहने लगे, “मैंने क्या बुरा कहा, मैं ऐसी बहू घर में नहीं लाना चाहता जो मेरा कहा न माने। मैं तक़ी की शादी इसलिए कर रहा हूँ कि मुझे आराम पहुंचे।”
अ’जीब-ओ-ग़रीब मंतिक़ थी। मैंने पूछा, “आपको आराम ज़रूर पहुंचना चाहिए। मगर आपकी ये मंतिक़ मेरी समझ में नहीं आई। ऐसा मालूम होता है कि ख़ाविंद और बीवी का रिश्ता आपकी समझ से बालातर है।”
मौलाना ने किसी क़दर ख़फ़गी के साथ कहा, “मैं ख़ाविंद रह चुका हूँ मंटो साहब, आपके ख़यालात मेरे ख़यालात से बहुत मुख़्तलिफ़ हैं। आपके साथ काम कर के, मुझे अफ़सोस है, मेरे लड़के के ख़यालात भी बदल गए हैं।” ये कह कर वह तक़ी से मुख़ातिब हुए, “सुना तुम ने, मैं ऐसी लड़की घर में लाना चाहता हूँ जो मेरी और तुम्हारी ख़िदमत करे।”
इसके बाद देर तक बातें होती रहीं। उनसे जो मैंने नतीजा निकाला वो मैंने तक़ी को बताया दिया, “देखो भई, बात ये है कि तुम्हारे वालिद साहब तुम्हारी शादी नहीं करना चाहते। यही वजह है कि वो हर बार कोई न कोई शोशा छेड़ देते हैं। कोई न कोई बहाना ढूंढ निकालते हैं ताकि मुआ’मला आगे न बढ़ने पाए।”
मौलाना ख़ामोश अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते रहे। तक़ी ने मुझसे पूछा, “क्यों, ये मेरी शादी क्यों नहीं करना चाहते?”
मेरे मुँह से बेइख़्तियार निकल गया, “मौलाना का दिमाग़ ख़राब है।”
मौलाना को इस क़दर तैश आया कि मुँह में झाग भर कर वाही तबाही बकने लगे। मैंने तक़ी से कहा, “जाओ, मौलाना को किसी ज़ेहनी शिफ़ाख़ाना में ले जाओ... और मेरी ये बात याद रखो। जब तक इन का दिमाग़ दुरुस्त नहीं होगा, तुम्हारी शादी हर्गिज़ हर्गिज़ नहीं करेंगे। इनके दिमाग़ की ख़राबी का बाइ’स वो क़ुर्बानी है जो इन्होंने तुम्हारे लिए की।”
मौलाना ने तक़ी का बाज़ू ज़ोर से पकड़ा और मुझे सलवातें सुनाते चले गए। वली मोहम्मद मेरे पास बैठा सब कुछ ख़ामोशी से सुन रहा था। इतनी देर वो अपनी नोकीली मूंछों के वजूद से बिल्कुल ग़ाफ़िल रहा। जब मौलाना और तक़ी चले गए तो उसने आँखों का ज़ाविया दुरुस्त करके उनकी तरफ़ देखा और कहा, “मुर्दा ख़राब हो रहा है बेचारे का, लेकिन मंटो साहब, आपने बावन तोला और पाव रत्ती की बात कही। मुहावरा दुरुस्त इस्तेमाल हुआ है न?”
“तुमने मुहावरा दुरुस्त इस्तेमाल किया है लेकिन अफ़सोस है कि मौलाना की तबीयत साफ़ करते हुए मैंने मुनासिब-ओ-मौज़ूं अलफ़ाज़ इस्तेमाल नहीं किए।”
“बड़ा मलऊ’न आदमी है!” वली मोहम्मद ने ये कह कर अपनी मूंछ का हटीला बाल बड़े ज़ोर से उखेड़ा और बड़ी संजीदगी इख़्तियार करके मुझसे पूछा, “मंटो साहब, क्या मतलब था आपका इससे कि मौलाना के दिमाग़ की ख़राबी का बाइ’स वो क़ुर्बानी है जो उसने तक़ी के लिए की। बात ज़रूर बावन तोला और पाव रत्ती की है लेकिन पूरी तरह मेरे ज़ेहन में बैठी नहीं।”
मैंने उसको समझाया, “बीवी की मौत के बाद एक वक़्ती जज़्बा था जिसके तहत मौलाना ने तजर्रुद के दिन गुज़ारने का तहय्या किया। ये जज़्बा अपनी तबई मौत मरा तो आपके लिए दो सोग हो गए, एक बीवी की मौत का, दूसरा इस जज़्बे की मौत का। वक़्त गुज़रता गया और मौलाना नीम के करेले बनते गए। मुझे तो भई वली मोहम्मद, बहुत तरस आता है ग़रीब पर। एक शख़्स जिसने पच्चीस बरस तक अपने और औरत के दरमियान एक दीवार हाइल रखी हो, वो किस तरह अपने जवान बेटे के पहलू में एक जवान औरत देख सकता है और वो भी नज़रों के बहुत क़रीब!”
दूसरे दिन तक़ी न आया। वली मोहम्मद के हाथ उसने किताबत का बिल भिजवा दिया जो अदा कर दिया गया। तक़ी को बहुत अफ़सोस था कि मैंने उसके बाप को बुरा भला कहा। मैंने वली मोहम्मद से कह दिया, “मुझे कोई अफ़सोस नहीं, तक़ी को मालूम होना चाहिए था कि उसका बाप ज़ेहनी और रुहानी तौर पर बीमार है, लेकिन मुझे ये अफ़सोस ज़रूर है कि उसने काम छोड़ दिया है।”
वली मोहम्मद ने तक़ी से वापस आने को कहा, “मगर वो न माना। उसने किसी और दफ़्तर में मुलाज़मत न की और दुकान पर बैठ कर घी बेचने लगा। वली मोहम्मद ने जब ज़ोर दिया तो उसने वहीं किताबत का काम भी शुरू कर दिया।
मैं एक काम से दिल्ली चला गया। तीन चार महीने वहां रह कर बम्बई लौटा तो वली मोहम्मद ने प्लेटफार्म ही पर ये ख़बर सुनाई कि तक़ी की शादी एक हफ़्ता पहले बख़ैर-ओ-ख़ूबी हो चुकी है। मुझे यक़ीन न आया लेकिन वली मोहम्मद ने क़ुरआन की क़सम खा कर कहा, “मंटो साहब, मैं झूट नहीं कहता, निकाह के छुवारे मैंने सँभाल कर रखे हुए हैं। जिसकी शादी न होती हो, उसके लिए अकसीर साबित होंगे।”
मैंने तक़ी को बुलाया, “मगर वो न आया।”
तक़रीबन डेढ़ महीने के बाद एक दिन अलस्सुबह वली मोहम्मद आया। उसकी नोकीली मूंछें थिरक रही थीं। कहने लगा, “मंटो साहब, कल धीं पटास हो गई बाप बेटे में। तक़ी अपनी बीवी को लेकर चला गया कहीं।”
“कहाँ?”
“मालूम नहीं।” ये कह कर आँखों का ज़ाविया बदल कर वली मोहम्मद ने अपनी नोकीली मूंछों को देखा, “कुछ समझ में नहीं आता मंटो साहब, लड़ाई का बाइ’स मालूम नहीं होसका। मौलाना बिल्कुल ख़ामोश हैं।”
मौलाना बहुत देर तक ख़ामोश रहे और उनका बेटा मोहम्मद तक़ी भी। बम्बई में वली मोहम्मद और उसके साथियों ने तक़ी को बहुत तलाश किया, मगर उस का कोई सुराग़ न मिला।
बहुत दिनों के बाद दिल्ली से मुझे तक़ी का एक ख़त वसूल हुआ, लिखा था, “बहुत दिनों से सोच रहा था कि आपको ख़त लिखूं और हालात से आगाह करूं। मगर जुरअत साथ न देती थी। मैं आपसे दरख़्वास्त करता हूँ कि ये ख़त किसी और को न दखाईएगा।
आपने मेरे वालिद के मुतअ’ल्लिक़ जो कुछ कहा था, ठीक निकला। मैंने आपकी बातों का बुरा माना था इसलिए कि मुझे असलियत का इ’ल्म नहीं था जो मुझे शादी के बाद मालूम हुई।
मेरे वालिद का दिमाग़ वाक़ई दुरुस्त नहीं। हो सकता है पहले ठीक हो, लेकिन मेरी शादी के बाद तो क़तअ’न उनकी दिमाग़ी हालत दुरुस्त न थी। उनकी यही कोशिश थी कि मैं अपनी बीवी से दूर रहूं। मुझमें और उसमें दूरी पैदा करने के लिए वो अ’जीब-ओ-ग़रीब तरीक़े ईजाद करते थे, जो एक दीवाना ही कर सकता है। मैंने बहुत देर तक बर्दाश्त किया, मुझे तमाम वाक़ियात बयान करते हुए बहुत शर्म महसूस होती है।
एक रोज़ मेरी बीवी ग़ुस्लख़ाने में नहा रही थी। आपने दरवाज़े में से झांक कर देखना शुरू कर दिया... मैं और क्या लिखूं, समझ में नहीं आता। उनके दिमाग़ को क्या हो गया है। ख़ुदा उनकी हालत पर रहम करे।
मैं यहां दिल्ली में हूँ और बहुत ख़ुश हूँ।”
मैं ये ख़त पढ़ रहा था कि वली मोहम्मद आया। उसके पास तक़ी का एक ख़त था। मेरी तरफ़ बढ़ा कर उसने कहा, “ये ख़त तक़ी ने दिल्ली से अपने बाप को लिखा है... सिर्फ़ चंद अलफ़ाज़ हैं।”
मैंने पूछा, “क्या?”
वली मोहम्मद ने कहा, “पढ़ लीजिए।”
मैंने ये अलफ़ाज़ पढ़े। “क़िबला वालिद साहब, मैं यहां ख़ैरियत से हूँ। आपने मेरा घर आबाद किया है। मेरी ख़्वाहिश है कि आप भी अपना घर आबाद कर लें।”
वली मोहम्मद ने आँखों का ज़ाविया बदल कर अपनी नोकीली मूंछों को देखा और कहा,“मंटो साहब, लड़का होशियार हो गया है लेकिन मौलाना तो अपनी बात पक्की कर चुके हैं।”
“कहाँ?”
वली मोहम्मद की मूंछें थिरकीं, “एक घी बेचने वाली से, पांचों घी में और सर कड़ाहे में। मुहावरा ठीक इस्तेमाल किया है न मंटो साहब।”
मैं हंस पड़ा।
- पुस्तक : بادشاہت کاخاتمہ
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